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दल सप्ताग कौन को यह. प्रात मनोज्ञ सर रक्ष करेह । दिपै सभामण्डप मनमोह, परम उतंग सर्व यह कोह ॥५७|| रतनजटित बहुवर्ण बिमान, तामें कौन बसै परधान । को यह नृत्य कर मन लाय, सकल विभूति कहीं ना जाय ।।५।। मुहिको देखें दवा देव, मन प्रानन्द कर सब सेव । कारण कोन सो जान्यौ जाय, त्या त्या मन चिन्ता अधिकाय ॥५६॥ इहि प्रकार बहु चिन्ता कर, मनमें सुरपति विकलय धर । भेदाभेद न जान्यो यह, सख्त हियं बाढ़यो सदेह ॥६०॥ तावत मंत्री परम प्रबोन, प्रनमी चरणकमल मन हान । अवधिज्ञान कर जानी यह, नाप हियं बड़यो संदेह ।।६१।। प्रस्तुति करी नाय निज माल, मो स्वामी तुम दीनदयाल । धन्य आज देखै तुम नैन, जोवन सफल भयो मुझ एन ॥६२॥ देह पवित्र प्राज मो भई, आज ह मनको दुर्गति गई। हस्त कमा फिर जोरे देव, शिर नवाय बोलो कर सेव ।।६३॥ अव सुनिये भो कृपानिधान, जामें मन विकलप को हान । स्वर्ग महा अच्युय यह सोय, ऋद्धि सिद्धि को सागर ताय ॥६४॥ सकल स्वर्ग के पर वस, ज्यों माथे चूड़ामणि लस । चन्द्रकान्त मूगा मणिमई, नाना रतन भूमि वरनई ॥६५॥ रात दिवस को भेद न कदा, रतन ज्योति सों हित सदा । तीन लोक में दुर्लभ जोई, एक धर्मसों सुलभ जु होइ॥६६॥ सुख-सागर में निबस सोय, दुःख दरिद्य न ध्या कोय । कामधेनु गौ दूध अपार, कल्पवृक्ष दयाविध दातार ।।७।। चिन्तमणि से रत्न अनप, और वस्तु को कहा स्वरूप । स्वर्ग-बाग तर नाना रूप, चत्यवृक्ष प्रादि तरु भूप ॥६८।। फल फूल तहां अधिकार, दश ही दिश फली महकार । यहां न वरते दुख को हेत, सुख समूह सब ही विधि देत ॥६६॥
हीन दरिद्री रोगी दुखी, निर्गुण निर्जानी दुखी। दुर्भागी दुर्वचनों जिते, सपने मांहि न दोस इते ॥७॥ __ के जिन पूजा बरते अग, सुनें केवलो वचन उतंग । देखें नृत्य महारमणीक, और न मन में विकलप लीक ।।७१॥
इस प्रकार वे धीर वीर मुनि इन्द्रिय जन्य मुखको हानि के लिये सदा काय क्लेश रूपनप किया करते थे। उन्होंने वाह्य और अन्तरंग दोनों तपों का उचित रूप से पालन किया और दश प्रकार की आलोचना के द्वारा प्रमाद रहित चरित्र को शुद्ध करने वाले प्रायश्चित तपको धारण किया। वे मन वचन कायकी शुद्धता पूर्वक सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और इनके धारण करने वाले परम सुनिश्वरों की प्रार्थना करते थे। साथ ही वे इन्द्रिय मन को वश में करने के लिये अंगपूर्व शास्त्रों का अभ्यास किया करते थे।
उन्होंने निर्ममत्व सूख की प्राप्ति के लिये शरीदि से ममता त्यागकर कर्म रूपी बान को भस्म करने के उद्देश्य से ब्यूत्सर्ग तप करना प्रारम्भ किया । वे बुद्धिमान मुनि धर्म-ध्यान शुद्ध ध्यान में लीन हो स्वप्न में भी पात ध्यान को नहीं विचारते थे । वह मार्त ध्यान अनिष्ट संयोग से उत्पन्न इष्ट वियोग से उत्पन्न महान रोग से उत्पन्न और निदान रुप इस तरह चार प्रकार का है। इस प्रकार मनि के चित्त में चार प्रकार का रौद्र ध्यान भी जगह नहीं पाता था । वह रोद्र ध्यान जीव-हिंसा, झूठ, चोरो परिग्रह रक्षा में प्रानन्द मानने से होता है और नरक गति में ले जाने वाला है । वे शुद्ध चित्त वाले मुनि प्राज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचयरूप चार प्रकार के धर्म-ध्यानका चितवन करने लगे। यह धर्म-ध्यान स्वर्गादि सुखों का प्रदान करने वाला है।
वे बुद्धिमान मनि बनादिकों में पृथकत्व वितर्क, सूक्ष्म क्रिया प्रतिपत्ति, व्यपर क्रिया निवृति- इस तरह चार प्रकार के शुक्ल ध्यानका चितवन करने लगे । यह शुक्ल ध्यान सर्व-श्रष्ट है, विकल्प रहित है और साक्षात मोक्ष प्रदान करने वाला है। मनि ने बारह भेद रूप महान तपका आचरण किया, जो कर्मरूपी शत्रुओं का संहारक है। वह केवल ज्ञानको उत्पन्न करने वाला है और वांछित अर्थको सिद्ध करने वाला है। कठिन तग के प्रभाव से उन्हें दिव्य ज्ञानादि अनेक ऋद्धिया प्राप्त हई। ये ऋद्धियां अविनश्वर सुख प्रदान करने वाली होती हैं। .
मुनिका स्वभाव अत्यन्त सरल हो गया। वे सब प्राणियों पर दयाभाव रखते थे । धर्मात्मा पुरषों को देखकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता होती थी और उनका बड़ा आदर करते थे। पर मिथ्या दृष्टि जोवों से सदा उदासीन रहा करते थे । मैत्रो प्रादि चारों प्रकार को भावनामोंमें लीन उन मनि को स्वप्न में भी राग-द्वप नहीं होता था । वे दर्शन विशुद्धि आदि गुणों में लौन थे। एक दिन उन्होंने तीर्थकर की संपदा प्रदान करने वाली सोलह भावनाओं को ग्रहण किया। वे भावनायें निम्न थीं। .
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