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सप्तम अधिकार मंगलाचरण
दोहा दिघनहरन ग्रानन्द करन, सेवे विजगत पाय । बन्दी पारस पद कमल, भवभब में सूखदाय ।।शा कहौं वीर जिनराज को, आगे चरित रसाल। पंचकल्याणक विविध विधि, मिथ्यातम खय काल ॥२॥
चौपाई याही जम्बू द्वीप महान, जोजन लाख तास परवान । बनकोट है गिरदाकर, वसु जोजन अवगाहन धार ॥३॥ तीन लाख सोलह हज्जार, दोसै सत्ताईस विचार । इतने जोजन है परवान. ऊपर कोश तीन पहिचान ।।४।। धनुष एकसं अट्ठाईस, साढ़े तेरह अंगुल दोस । यह परिधी को सब विस्तार, बैठ्यो जम्बूद्वीप सम्हार ॥५॥ लवण समुद्र बहै चहुं ओर, जोजन लाख दोय सर वोर। बड़वानल तह अधिक प्रचण्ड, ब नीर सोने बलबण्ड ।।६।। चहुं दिश वार पेठवा जान, विदिशा चारों मध्य प्रमान । सवा सवा से अन्तर ओर, एक सहस बसु हैं सब जोर ॥७॥ जलचर जी व अनेक प्रकार, पीवन जोग नहीं जब खार । द्वीपहि मध्य परम परधान, मेरु सुदर्शन शोभावान ।।८11 जोजन लाखजु महा उतंग, स्थूल सहस दस मूल अभंग । ताकी रचना सुनो प्रानन्द, एक सहस जोजन को कन्द ।।६। तापर भद्रसाल बनसार, तह जिन भवन अकृत्रिम सार । बिदिशा चार चार गजदन्त, नील निषध पर्वत लौ अन्त ॥१०॥ प्रति उतंग कंचन सम पगे, तिनपं इवा इक जिनगृह लगे । बन सब शोभित नाना भांति, कल्पद्रुम की सघनी पाति ॥११॥ कुरुद्वय दक्षिण उत्तर दोय, जम्बू शाल्मली अवलोय । इक इक तरु की शाखा चार, चारों निश लीजे अवधार ॥१२॥ पूरब शाखा जिन गृह बस, सदा सासुते हिममय लसै । तह से पंग शत योजन जान, नन्दन वन सो पाहो बखान ||१३|| चार चैत्यालय बन में सही, रचना तास पूर्ववत कही । तहं ते साई बासट सहस, है उत्तंग जोजन सौमनस ।।१४।। तहां भवन जिन चार मनोग, पूरववत् सामग्री जोग । तई ते जोजन सहस छत्तीस, पाण्डक वन गिरीन्द्र के शीस ॥१५॥ परब वत चैत्यालय चार, कंचन मय चारौं दिश चार । ताके मध्य चूलिका दोस, मुकुट सदश जोजन चालीस ।।१६।।
लोकपाल जिनका सदा, करने सद्गुण गान । करें विघ्न सब नष्ट वे, पार्श्वनाथ भगवान ।। जिन महाप्रभु के सदगुणों का गान लोक-पतियों के द्वारा सर्वदा हुया करता है, वे पार्श्वनाथ भगवान समग्र विघ्नों (ग्रंथ निर्माण सम्बन्धी पाने वाले उत्पातों) को नष्ट करें। अर्थात् ग्रंथ निर्माण में किसी प्रकार की बाधा न उपस्थित होने दें।
भरत क्षेत्र में विदेह नामक एक विस्तृत देश है। धामिक पुरुषों का निवास स्थान होने के कारण बह विदेह-क्षेत्र जैसा ही शोभामान है। इस स्थल से कितने ही मुनियों ने मोक्ष प्राप्त किया है । नाम के अनुसार इस स्थान का गुण भी सार्थक है। यहां के निवासी कोई सोलहकारणादि भावनाओं का विचार कर तीर्थकर नाम कर्म का बन्ध करते हैं, कोई पंचोत्तर नाम के अहमिन्द्र स्थान में पहुंचते हैं। भक्ति पूर्वक उत्तम पात्र दान देने से भोग-भूमि में जन्म ग्रहण कर लेना तो यहां के निवासियों के लिये सामान्य सी बात है । यहां तक की यहां के कोई भब्य जीव भगवान की पूजा के फल स्वरुप स्वर्ग में इन्द्र-पद प्राप्त होते हैं।
यह स्थान अर्हन्त केवली भगवान की मोक्ष-भूमि है । कारण यहां स्थान स्थान पर मोक्ष स्थान है। इस भूमि को मनुष्य, देव, और विद्याधर सभी नमस्कार करते हैं। यहां के वन-पर्वत ध्यानी योगियों से अत्यन्त शोभायमान हैं। और बड़े ऊंचे भव्य