________________
जैसो दक्षिण दिश व्यवहार, मेरु हि तैसो उत्तर धार । हेमबरन शिमिरन हिमवन्न, रजन झकिम पर महाहिमवन्न ।।५।। नील नील मति की उनहार, निषध महा कचनवत धार । वचकोट हिंग क्ल गिरि छोड़, तहं कुभोग भू भीबिरा जोड ।।६०॥ ग्रज परख पश्चिम विस्तार, नील निषध के बीच मझार । कोट हेठ पुरब दिश जात, देवारण्य सुवन विख्यात ॥६३|| जोजन दोय सहस परवान, नवसं वाइरा जार जान । पुनि विदेह इक सोहै तहां, दोय सहस जोजन पर जहां ।।६२.1 ऊपर होस वारद्ध जोय, साढे तीन कोश जुन सोय । तामें सरिता दोय पुनीत, गंगा मिन्धवत सब हैं रीत ।।३।। निषध निकट इदसै निकमाय, जाय मिली सीत सरंभाय । षटखण्डहि मण्डित परबान, तामधि इक विजयारघ जान ।।६४|| ताही पं जिनभवन अकृत, काल चतुर्थ हि सदा प्रवृत्त । पनि बछार पर्वन पहिचान, नौलहि तं सीता लग मान ।।६।। पंच सया जोजन विस्तार, ताप जिनगह एक सवार । अव विदेह दूनी पहिचान, पुरब बत विधि लोजी जान ।।६।। फेर विभंगा सरिता एक. कही सवासै जोजन टेक । रोहित बत सामग्री भली, निकस नील द्रह सीता मिली ।।६७।। तृतिय विदेह पर्ववत जोय, द्वितिय वछार प्रयम सम होय । तुर्य विदेह जान अब सही, द्वितीय विभगा सरिता सहा ।।३।। फेर बिदेह पंचमो जात, गिरि बछार तीजौ पहिचान । छठी विदेह जान अब पीर, तृतिय विभंगा सरिता दार ॥६ विदेह सप्तमी थान गनेह, गिरी बछार तूर्य अवलेह । विदेह अष्टमी तहत लही, दक्षिण तट सब वर्णन यही ।।७।। एही विधि उत्तर तट जार, वसु विदेह लहं शोभा थान । तहत भद्रशाल बन मार, है जोजन वावीस हजार ।।७।। साकी रचना है यह धेर, पत्र सहस लहि माधो मेर । यह पूरब दिश शोभा जान, जोजन सहस पचास प्रबान नाही विधि पश्चिम विरतंत, भुनारण्य बन हिलौं अन्न सब विदेह बत्तीस बखान, तिहित है विजयारध थाना पर पोडस वक्षार महान, सबप इक इक जिनगृह जान । ए पर्वत इकसठ परधान, सब जिनभवन अउसर थाना अब सामान्य हि भूधर दीस, बषभाचल है राब चौंलास । मैं म्वेच्छ खण्ड के माहि, तहां चकाति नाम लिखाहि ॥७॥ मेरु निकट है दिगज पाठ, दीसत कंचन गिरिको ठाठ। सीता सोतोदा सट तेह, कंचन बरण जान सब लेडी जघन्य भोग भमि में कहे, नान गिरीश मार सर देह । चार जमुक गिरि कुरु भू माहि, नील निषध के निकट जू पाहि ।।७।। ए परवत सब ही वरणये, ग्यारा अधिक तीनसे भो । सरबर सब इकस छत्तीस, तिनकी संख्या सून अवनीस बार
उन्हें महाराज का अत्यन्त स्नेह प्राप्त हुआ। वे दोनों ही महाराज और महारानी देव तुल्य सुखों का उपभोग करते हुए जीवन व्यतीत करने लगे।
पाठक वर्ग का स्मरण होगा कि अच्युत स्वर्ग का इंद्र बड़ी विभूति के साथ अपना समय व्यतीत कर रहा था। सौधर्म के इंद्र ने एक दिन कुबेर से कहा - अब अच्युतेन्द्र को प्रायु केवल ६ मारा बाकी रह गयी है। अब ये इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सिद्धार्थ महाराज के महल में अन्तिम तीर्थंकर श्रो बर्द्धमान के रूप में जन्म ग्रहण करेंगे । अतएव तुम्हें इस नगर में पूर्व से ही जाकर रनों की वर्षा आरम्भ कर देनी चाहिए । साथ ही शेष पाश्चों को भी परहित के लिए सम्पन्न करो । इंद्र को ऐसी प्राज्ञा प्राप्त कर यक्षाधिपति तत्काल ही मध्यलोक में आ गया। उसने बड़ी प्रसन्नता के साथ महाराज सिद्धार्थ के राजमन्दिर में रत्नों की वर्षा प्रारम्भ की। महल में ऐरावत हाथी की सुड जैसी रत्नों को धारा पड़ने लगी। उस समय रत्न सुवर्ण मयी वर्षा आकाश से पड़ती हुई ऐसी प्रतीत होती थी, मानों प्राकाशरूपी माला माता-पिता की सेवा करने आ रही हों।
गर्भाधान के पूर्व ः मास तक इसी प्रकार कल्पवृक्ष के पुष्प सुगन्धित जल सुवर्ण और रत्नों के दरों में राजमहल जगमगा उठा । रत्न किरणों की जगमगाहट से वह महल सूर्यादि ग्रहवक के समान प्रकाशित होने लगा। उस समय सारे नगर में इसी बात की चर्चा होने लगी। कितने हो भव्य लोगों ने कहा-देखो, यह तीन जगत के गुरु की ही अपूर्व महिमा है कि, प्राज कवेर रत्नों की वर्षा से राजमहल को परिपूर्ण कर रहा है। उनको ऐसी बात सुनकर पीर लोगों ने भी कहना प्रारम्भ कियाइसमें जरा भी प्रायन्नय नहीं कि राजा के उत्पन्न होने वाले पुत्र प्रहंत की सेवा के लिए हो देवेन्द्र ने भक्तिवश ऐसा किया है। उनकी ऐसी बाते सुनकर अन्य लोगों ने भी कहा-यह सब धर्म का ही प्रभाव है । उसी फल स्वरूप पुत्र प्रहंत की प्रसन्नता में रत्नों की