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चौपाई इहि प्रकार मन्त्री बच सुनै, तावत अबधि जान मन गुन । पूरव भब में व्रत प्रादरो, सो फल आप भोग यह करो ॥६६॥ जिनवर कथित धर्म में कियौ, मन्ट कर्म विध्वंसन कियो। मैं पूरब तप कीनी घोर, श्यानाध्ययन शवासन ओर ॥१७॥ पंच परमगुरु त्रिभुवन तार, आराधे मन वच तन सार । रतनत्रय धारो अवरुद्ध, परम भाव सो आतम शुद्ध ||६८11 विषय कषाय काम मन पोर, दियो जलाय ध्यान के जोर ! कही परीषह दो पर बोस, तिनको विजय करी अवनीश IEE|| दश लक्षणी धर्म सुखदाय, मैं पूरब कीनौं मन लाय । ता फल स्वर्ग सोलहवं ठाम, राज्य बिभूति भई निज धाम ॥१०॥ धर्म समान स बांधव जोय, तीन लोक में और न कोय । भवसागर में रक्षक धर्म, करै धर्म सरवारथ शर्म ॥१०॥ धर्म जीव को सगति सिधार, धर्म पाप अरि नाशनहार । स्वर्ग मुक्ति को दायक धर्म, अरु जग को मेटन सब भमं ॥१०॥ ऐसी जान धर्म नित करै, मिथ्या मत सब ही परिहरे। कर जु कोटि और प्राचार, धर्म समान न पुरं सार ॥१०३।। दर्शन शुद्ध अर्थ अरु काम, श्री जिनदर वन्दे सुखधाम । अरु तिनको पूजे गुण रूप, होय धर्म को सिद्धि अनूप ।।१०४।। यह विचार उठ ठाड़ो भयो, देविन सहित बापिका गयो । सदा शाश्वती अति गम्भीर, मानो क्षीरोदधिको नोर ||१०।। अमत जल परिपूरण जोय, धटै बड़े कछु नाही सोय । फाटिक मणिमय पंडी सार, सब बंधाव रतनन निरधार ।।१०६।। तह सूरपति कोनी असनान, पहरे भूपंग वसन महान । देविन सहित गयौ फिर तहाँ, प्राकृत्रिम जिन मन्दिर जहाँ ।।१०७।। सौ जोजन दीरघ पहिचान, अरु विस्तार पचास प्रमान । पचहत्तर जोजनसु उतंग, जोजन पाठ द्वार मन रंग ॥१०८।। तिनमें प्रतिमा सौ ग्ररु आठ, काया धनुष पाँच सै ठाठ । बसु प्रतिहारज मण्डित ईश, वाणो खिरै परम निश दोस ||१०६।। नमस्कार कीनी हरि जाय, तुम भगवंत परम सुखदाय । तुम बिन सदा जीव दुख सहै, तुम बिन कौन मोक्ष पद गहै ।।११०॥
यह अच्यूत नामक स्वर्ग है । यह सब स्वर्गों की मुकुट मणि के समान शोभायमान है । यहाँ पर मनो-वांछित वस्तुओं की सर्वदा प्राप्ति होती रहती है। तीनों लोकों में भी दुर्लभ अगोचर इन्द्रिय सुख यहां पुण्यात्मानों को सुलभ है। यहां पर कामधेनु गाये, समस्त कल्पवृक्ष और चिन्तामणि रत्न स्वभाव से ही प्राप्त होते हैं । यहाँ सारी सम्पदानों को प्राप्ति होने में जरा भी परिश्रम नहीं होता। यहां किसी प्रकार के ऋतु दुःख का कोई कारण नहीं है।
यहां पर किसी दिन रात का भेद नहीं होता। सदा रत्नों का प्रकाश होता रहता है। दीन-दुखियों का यहाँ नाम निशान भी नहीं है। पापी और निर्गुणी मनुष्य तो वहां स्वप्न में भी दिखाई नहीं देते। यह स्थान ऐसी पुण्य-भूमि है कि जिनालयों में सर्वदा जिनेश्वर भगवान की पूजा अर्चा होती रहती है। नृत्य-गीतादिसे प्रति दिन महान उत्सव उत्पन्न हुप्रा करते हैं। यहाँ प्रसंस्य देव विमान हैं।
___ दस हजार वैमानिक देव हैं । वे भी आपके ही समान ऋद्धिधारी हैं, पर वे प्रादेश नहीं कर सकते। ये तैतीस समुह देव प्रेमसे परिपूर्ण आपके पुत्रके तुल्य हैं।
आत्मरक्षक देवों की संख्या ४०००० है। सिपाहियों के समान अंग रक्षक हैं । मध्य सभा के देव ढाईसी हैं और पांचसौ बाहर को सभा के हैं। चार लोकपाल कोतवाल की भाँति हैं । इन लोकपालों की सुन्दर बत्तीस २ देवियाँ है। वे सखकी खानि हैं। ये तुम्हारी प्राज्ञा पालन करने वाली पाठ महा देवियां हैं।
इन्हीं महादेवियों के परिवार की देवियों की संख्या ढाईसी है ये तिरसठ बलभिका देवियां महान सम्पदा से युक्त आपके चित्तको हरण करने वाली हैं। ये दो हजार एकहत्तर देवियां, विदुषी हैं । ये महा देवियां एक लाख चौबीस हजार दिव्य रूपों की विक्रिया कर सकती हैं । अर्थात् प्रत्येक देवी इतनी स्त्रियों के रूप बना सकती हैं । हाथी, घोड़े, रथ, प्यादे, बल, गन्धर्व और नतंकी ये सात सेना के देव हैं। इनमें से प्रत्येक सेना की सात-सात पलटने हैं और हर एक सेना के सेनापति देव हैं। पहली हाथी की सेना में बोस हजार हाधी हैं तथा शेष सेना में इससे दूने-दुने हैं । इसी प्रकार अन्य सेनाओं में भी समझना ये सभी प्रापकी सेवा के लिये प्रस्तुत हैं।