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मोह महातम नाम मान. श्री जिनवर प्रतिक्रमण शुभ प्रत्याख्यान अरु व्युत्स | पुस्तक बीरहि लिख देव मूरख तं सम्यग्दृष्टी जो नर हो कर सम्मान
को
यानी सुख खान समितावान पण्डित कर न
मु
सांय
ताको बहुविध वर्णन करे प्रवचन भक्ति तहां विस्तरे ॥४१॥ तीन काल साधे स्वध्याय, यह आवसिका परिहाना ॥४२॥ जिन पूजा मन न करें, मार्ग प्रभाव उत्तम परे ॥ ४३ धनकवा भाष ता वास, वात्सल्य यह अंग प्रकाश ॥ ४४॥
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दोहा
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यह विध पोडस भावना भाई नन्द मुनीस तीर्थ कर पद महिमा तीनों लोक में इन्द्र उपेन्द्र पवार मुक्ति रूपी
वंधिय गुण अनन्त परमे ॥४५॥ लक्षमी बांधी वर हितकार ४६॥
चौपाई
मरण प्रजंत कियी तप घोर, पाल्यो संजम प्रातम जोर। अल्प आयु संपूरन करी, त साफ कियो भवपार, तीन जगत सुख को करतार परम विशुद्ध धरो सम्यास दरशन ज्ञान चरण तप लहै, समताभाव आतमा गहै। आराधन राधे चार, मन विकल्प सब की दूर मातम ध्यान दियो भरपूर सच जीवनसी क्षमा कराय, वजे समाधि प्राण
बोहा
यह तप फल सौ पाइयो, सुरग सोरहैं बास। यच्युत इन्द्र पुनीत पद, देव नमैं पद जास ।। ५१३ |
बीच
संपुट जिला रतन मन जसं, मानो कमलसु ऊरघ वसे धन्त मुहरत जीवन लयो, संपूरन तन प्राप्त भयो ।। ५२ ।। आभूषण भूषित सरसंग सहज रूप सम नाना रंग। तह तं उठ देखो सब भेष, अति रमणीक मनोहर देश ।। ५३ ।। ऋद्धि सिद्धि देखी सब राय, सुरविमान साविक समुदाय स्वप्न समान लगे यह बात मन चिन्तं कछु भेद न गात ४ को मैं कौन पुण्य है कियो, कोन देश यह कहां मानियो को प्रवीन ये बोलें बैन को सुर सेवं मन पर चैन ॥ ५५ ॥ ५५।। कौन तनी देवी गुणमाल, इस बता जुन शील विशाल रतुमयी प्रासाद उतंग, कौन व यह नाना रंग ।। ५६ ।।
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वपु आहार क्रिया परिहरी ||४७ || दायक मोल हर दुखास ॥४६॥ वांछ हिये मोख वर-नार ॥४६॥ मुनिराय ॥५०॥
देते हैं, पर वे भोग होनपुब्धी पुरुषोंको भी सुख नहीं दे सकते। यदि वस्तुतः भोग साधक इन्द्रिय सुखके वस्तु का विचार किया जाय तो उससे अत्यन्त घृणा उत्पन्न होती है । इसलिये यह निश्चित है कि भोग कोई शुभ वस्तु नहीं है ।
इस प्रकार विचार करनेके बाद राजाको वैराग्य उत्पन्न हुआ । उसने उसी योगीको दीक्षा गुरु बनाकर दोनों प्रकार के परिग्रहोंको छोड़ परम शुद्धि से जन्म-जन्म के दुःखों से मुक्त होनेके लिये मुनिव्रत ग्रहण किया। उस राजाने गुरुकी कृपा से प्रति अल्पकालमें ही शास्त्रोंका अध्ययन किया। वह अपनी शक्तिको प्रकट कर कर्म नष्ट करने वाले बारह प्रकारके तपोंका आचरण करने
लगा ।
उन मुनिने ६ मास तक कठोर अनशन व्रत किया। यह व्रत कर्मरूपी पर्वत को विनष्ट करने के लिये बचके समान है। निद्रा कम होने के लिये उस मूमिने अगोदर्य तपकों धारण किया। जितेन्द्री मुनिराजने वरणा नाश करने वाला वृत्ति परिसंख्यान तपका पालन चारम्भ किया। प्रतीन्द्रिय मुत्रके लिये उन्होंने रस परित्याग तपको धारण किया। वे ध्यानाध्ययन करने वाले मुनि स्त्री प्रादि रहित वनों और गुफाओं में विविक्तसय्यासन तपका पूर्ण रूपसे पालन करने लगे। वे वर्षा ऋतु और गर्म हवा के झोरों में भी वृक्ष के कम्बलको मोडे हुए तप किया करते थे। सर्दी के दिनों में ये चोराहे पर नदीके तौर पर और बर्फसे डके हुए स्थलों में कार्योत्सर्ग तप किया करते थे। सूर्य की किरणों से तप्त पहाड़ की गर्म मिला पर वे मुनि सूर्यके समान निश्चल रहते थे।
१. उत्तम तप के प्रभाव से अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवों के देव इन्द्र हुये ।
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