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बोहा
परम्पराय अनंत भव, घारौ संजम जोर। द्वादशांग वारिधि श्रगम, गुरु उपदेश जहाज
चादरी, साधक बादरी, साधक शिवको परवीन मुनि रहित प्रसाद
परम शुद्ध चित परम शुद्ध चित भयो पार
चोपाई
आप वीर्य को परगट करो, द्वादशविध तप मन बावरी । पाख मास उपवास हि धार पंचेन्द्रिय वस गुफा गिरी अन्दर वान एकाको वन सिंह समान सहें परोषह दो पर वीस बसें
मोर ।। २४ ।। प्रकाज ।। २५ ।।
मोसे निरधार ॥२६॥
क्षुधा तृषा मादि दुख दीस ||२७||
दोहा
नन्द मुनीश्वर भावजुत पोटश भावन सार भाये निर्मत चित्त नं. सकल सिद्धि दातार ||२६|| पोडा भावनाओं का वर्णन
चौपाई
यद
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सम्यग्दर्शन प्रथम विशुद्ध घटङ्ग वा दर्शन ज्ञान चरण उपदेग, जो मुनि देह जवारथ लेश सहस पठार शील अङ्ग चार वाले तज संग प प पू गुण ज्ञान, मत अशान करें निरगान भोग यंग सुत मित्र समेत धन कन कंचन कुल बल हे चार प्रकार संघ समुदाय, दीजै दान चार विश्व आय हुने कर्मरिक संतान व तप करें निदान श्री मुनिवर गुण गायक नेह रोग सोग भय पीड़ित देह् । तास रामाधि करें समुदाय, बातचित फल अनेक यति दुर्गन्ध कुष्ट तन टेक तामुनिकी श्री अरहंत देव सुखदाय मन बन काया सेव कराय । धर्म अर्थ शिव काम सहीत,
करें
वन्दे भाभारज मन हीन, पंचाचार करण परवीन श्रुतज्ञान ज्ञान उद्योतक मुनी, मत अज्ञान हरन गुन गुनी
गुण छतीस तनं परतार तिनकी भक्ति गरे र
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पचीस रहित जब होय. प्रथम भावना कहिए सोग ||२२|| ताकि विनय करें वह भांव, द्वितीय भावना सो विश्वात ॥३०॥ निर अतिचार कहावे सोह, तृतीय भावना उत्तम होई ॥१३१॥ कास पठन विस्तार सोय ज्ञान अभीक्षण भावना जोय || ३२ ॥ जब इनसे तन होय उदास, भव संवेग वनों पास ||३३|| । यथाशक्ति जिन भाव समेत, शक्तितस्त्याग भावना हेतु ||३४|| जो निज शक्ति मारमा गहे. शक्तितस्तव सो जाना वहै ।। ३५ ।। साधु समाधि वही सुखदाय ॥३६॥ वैयावृत सम वैयावृत तव उत्तम घरं ||३७|| दाहक सरहद भक्ति पुनीत ||३८|| यह प्राचारज भक्ति विचार ||३६|| जोय, बहुमत भक्ति कहाई सोग ॥०॥
जो भव्यजीव इन सारभूत लक्षणों से युक्त मुनिगोचर परम धर्मका पालन करते हैं, वे संसार के सभी सुखों का उपभोग कर अन्त में मुक्ति के अधिकारी होते हैं। यदि किसीसे साक्षात्र धर्म का पालन न हो सके, तो नाम मात्र स्मरण कर लेना चाहिये। उसे सुखकी प्राप्ति होगी। ऐसे धर्मका माहात्म्य समझ कर विवेक पुरुयोंका नाहिये कि वे इन जगभंगुर शारीरिक भोगों से विरक्ति उत्पन्न कर लें । उन्हें मोहेन्द्रियों को जीत कर अपनी सारी शक्ति लगा कर धर्म-साधनमें लोन हो जाना चाहिये । मुनि राज को मृत सदृश दाणी सुनकर नन्दराम के मनमें विवेक उत्पन्न हुआ। उसने विचार किया कि यह संसार घनन्तं दुखका यागार है, आदि और अन्त रहित है, यतः इससे भव्य जीवों को प्रोति कैसे हो सकता है। यदि यह संसार दुःख की खान न होता तो सांसारिक सुखोंसे परिपूर्ण तीर्थकर देव मोक्ष के लिये इसका क्यों परित्याग करते ? भला भूख-प्यास, कोपादिरूप अग्नि से जलने वाले शरीर रूपी झोपड़ से धर्मात्मागण वैसी प्रीति कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं कर सकते ।
केवल यही नहीं, जिस स्थल पर इन्द्रियरूपी पोर धर्मरूपी धन को चुराने वाले हों, भला उस शरीर में कौन बुद्धिमान निवास करना चाहेगा? जहां जन्म के पूर्व दुःख और मृत्युके बाद भी दुःख ही दुःख है, जहां के भोग दाहको तीव्र करने वाले हों, उसे की बुद्धिमान मामंत्रित करेगा? भोग सर्वथा दुःख उत्पन्न करने वाले होते हैं। प्रतः महापुरुष उन्हें सर्वथा परित्याग कर
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