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इत्यादिक सह विविध दुख, भई कंदर्पन धोर । प्रशरण नित पी. वहुत, कहो कहां लौं सोइ ॥२२॥ नरक प्रायु क्षयकर तुही, खोटे कर्म उपाय । परावोन मृगपति भयौ, पापवन्त दुखदाय ॥२३|| शीत उष्ण वर्षादि ऋतु, क्षुधा प्यास के जोर । कर कर्म कोने अशुभ, बांधि बंध यि घोर ॥२४॥ प्राणी हिंसा के उदय, दुख विपाक अंकूर । प्रथम पृथिवी तुम गये, रहैं सुक्ख सब दूर ।।२५।। तहं तें चय तुम ऊपज, धरी सिंह परजाय । क्रूर पराश्रम करत हैं, पूर्व दुःख विसराम ।।२६।।
चौपाई
इहि प्रकार मिथ्या चिरकाल, भटकं बहु विध भव विध जाल । हालाहल पीवत सुध जाय, सम्यक् बुद्धि हिय विसराय ।।२०॥ अहो वत्स ! दुर्गति को वास, छोड़ो कार्ज पराक्रम जास । अनशन गहो विविध परकार, व्रत पूरव के अर्थ विचार ॥२८॥ भरतक्षेत्र यह प्रारज ठाम, हही दश में भव सुख धाम । अन्तिम तीर्थकर. गुण धीर, बर्द्धमान स्वामी वर वीर ॥२६॥ जंबद्वीप सु पूर्व विदेह, सीमंधर जिनपति गुण गेह । श्रीमुख दिव्य कथा मैं सुनी, भावी तुम पाने सब भनी ।।३०॥ मनिके बच सुन इह परकार, जातिस्मरण उपजी सार । जानौ भवसागर दुख धोर, मर्व अग कंप्यो भय जोर ||३१|| दूठ परिणाम दूर सब रहै, शान्त चित्त सों मुनिपद गहै । अथ पात बहु कीनी तहां, पश्चात्ताप ग्रादि हरि जहां ॥३२।। फिर मुनि सौं मृगपति इम कही, सम्यवृद्धि भाषिये सही । शांत तरंग प्रातमाराम कहत भये मुनि कृपा निदान ।।३३।।
धर्म कल्पतरु मूल है, वजित शंका दोष । मुक्ति प्रथम सोपान सो, बुध नर सम्यक पोप ॥३४॥ कल्याणक करता जगत भव भव सुक्ख अपार । अहंद आदिक पंचपद, होत धर्म मौं सार ||३५11
चौपाई
दरशन सम ते धर्मजू और, भयों न ह है जगके ठौर । वर्तमान नाहीं है अब, कल्याणक को साधक सबै ।। ३६।।..." मिथ्या सम नहि पाप अपार, भयो न भावी दुख दातार । तीन लोक में अनरथ बन्ध, दुरमारग धारी नर अन्ध ।।३।।।।' सप्त तत्व को श्रद्धा कर, निःसन्देह जिनागम धरै । दर्शन ज्ञान चरण अभ्यास, गही सुबष करता सन्यास ।।३।।
किसी कारण वश तू पुनः किसी राजा के यहां उत्पन्न हुआ । वहाँ तेरा नाम विश्वनन्दी गड़ा । नू ने पुनः संयम.धारण, किया और त्रिपष्ट नाम का नारायण हुआ। आगे तू इसो भरत क्षेत्र में जन्म धारण कर संसार हित करने वाला चौबीसवाँ, तीर्थकर होगा, यह सर्वथा सत्य है । कारण जम्बरोप के पूर्व विदेह में एक बार किसी ने श्रीधर नामक तीर्थकर से पछा था कि
भावन। जम्बदीप के भरत क्षेत्र में जो चौबीसवां तीर्थकर होगा, उसका जीव आजकल किस स्थान पर है। इस प्रश्न के उत्तर में भगवान ने जो कुछ कहा था, उसे मैंने तुझे सुना दिया। अतएव अब तुम संसार के कारण ऐसे मिथ्यात्व को हलाहल समझ कर त्याग दो, और सम्यक्त्व को ग्रहण करो। सम्यक्त्व धर्मरूपी कल्पवृक्ष का वीज है। वह मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान है। ऐसे शुद्ध सम्यक्त्व को धारण करने से तुम्हें तीनों संसार की विभूति, तीनों जगत में होने वाले चक्रवर्ती आदिकों के संवत अहंत पद जैसे सुख उपलब्ध होंगे।
वस्तुतः सम्यक दर्शन के समान न तो कोई धर्म है, न होगा। वह सम्यकस्व ही कल्याण का साधक है। पर मिथ्यात्व में समान तीनों लोको में दूसरा पाप नहीं है । अतएव यह मिथ्यात्व हो सारे अनर्थों को जड़ है। उस सम्यकत्व की प्राप्ति जोवादि सप्त तत्वों के श्रद्धान से तथा सर्वज्ञ देव सदग्रंथ और निग्रथ और गुस्यों के श्रद्धान से होती है, जिसकी प्राप्ति से ही ज्ञान चारित्र को सत्य कहा जा सकता है। यह कथन भगवान जिनेन्द्र देव का है । अतएव तुम्हें चाहिये कि सम्यक्त्व के साथ उत्कृष्ट श्रावक
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