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तप सध्यान सौं छोडं प्रान, धरि समाधि हिरदे शुभ ज्ञान । महाशुक्र सुरग सो गयो, तप फल देव महद्धिक भयो ।। १४५ ।। संपूट शिलागर्भ तंह ठयो अन्तमूहरत यौवन लयो। अम्बर भूषित सहज सुभाय, सात धातु मल रहित सुकाय ।। १४६ । अति गरिष्ठ निज लक्ष्मी देख ता छिन अवधिज्ञान सो लेख | जाना पूरब सो विरतत, परभव तनो धर्म फल संत ॥ १४७ ।। ताते धर्मसिद्धके काज, गये जहां जिनमन्दिर राज । प्रणमैं फिर कीनी शंकरी, कल्याणक करता गुण भरी ।। १४८ ॥ प्रष्ट द्रब्य जल आदिक लेह, जिनवर पागे अर्थ घरेह । भक्ति करी युत देवन जिती, उपमा घरण सके को किती ॥ १४६ ।। पोछे मनुज लोकमें आय, जिनमन्दिर पूजे सब जाय । बन्दै मुनी सुनी, श्रुत वानि, वर्धक पुण्य पापकी हानि ।। १५० ।। बहु विध सुन धर्म उपदेश, चारित व्रत जहं होय न लेश । षोडस जलधि प्राय परवान, शुभ लेश्या दर चित्त महान ॥ १५॥
वोहा तुर्य अवनि पर्यन्त लो, वस्तु चराचर जान । तित ही लौं है विक्रिया ऋद्धितनी परभाव ॥ १५२ ।। बरस सहस षोडस गये, लेहि सुबर याहार । आठ मास जब, बीतहीं गन्ध उसास विचार ।। १५३ ॥ पूरव तप फल जानिये, दिव्य देह रति देव । बहु विभूक्ति संयुक्त सुख, करहि अप्सरा सेव ।। १५४ ।।
गीतिका छन्द इति भांति सुकृत विपाक फलकर राज्यलक्ष्मी लहि अति । सुक्ख निरुपम सार सुन्दर, भोग भुगतै नरपति ॥ तप चरणसौं फिर पाय सुरपद ऋद्धि वसुमण्डित सही । इमि धारि शिवपद चाह तिनक, परम घरम सुध्यावही ।। १५५ धर्म बहुविध कहिब पुरब, धर्म तिन पूरब भजौ । धर्म निर्मल चरण प्रत है, धर्म नमि पापहि तजौ ।। धर्म त नहि अपर कोई धर्म शरण सहाय है। धर्म भव भव करहि रक्षा धर्म सब सुखदाय है ।। १५६ । इति श्री कविरत्न नवलशाह विरचित भाषा छन्दोबद्ध वर्द्धमान पुराण में सिंहादि पाठ भावों का वर्णन करने वाला
चतुर्थ अधिकार पूर्ण हुआ।
रूप उत्तर मूल गुणों का पालन करते हुए मृत्यु के समय पाहार और शरीर से ममता परित्याग कर अनशन तप ग्रहण कर लिया । बादमें वे दर्शन, ज्ञान, चरित्र तपरूप चारों आराधनाओं का सेवन कर समाधिमरण से प्राणों का परित्याग कर, उसके फल स्वरूप महाशुक्र नामक दसवें स्वर्ग में महान ऋद्धिधारी देव हुए । वहां अन्तर मुहूर्त में ही उन्हें यौवनावस्थाकी प्राप्ति हो गयी। वे एक दिव्य धातु-मल रहित शरीरधारी देव हुए।
देव रूपमें उन्हें अवधिज्ञान प्राप्त हुया । उसने अपने अवधिज्ञानसे पूर्व कृत धर्मके फलसे प्राप्त विभूतियोंका ज्ञान प्राप्त कर लिया । वह धमकी सिद्धि के लिये, जिन मन्दिरों में जाकर सर्व जगतका कल्याण करनेवाली जिन भगवानकी अष्ट द्रव्यों से पूजा किया करता था। पुनः मध्य लोक के जिन चैत्यालयों की पूजा कर और जिनवाणी का श्रवण कर उसने श्रेष्ठ पुण्यका उपार्जन किया । उस धर्मप्रमो देवको सोलह सागर की प्राबू प्राप्त हई वहां उसका शरीर चार हाथ ऊंचा हुआ। उसके शुभ परिणामसे देवको अवधिज्ञान से चौश्री नरक की भूमि तक का अधिज्ञान था और वहीं तक उसे विक्रिया शक्ति प्राप्त थो। मोलह हजार वर्ष व्ययतीत होने पर वह अमतका पाहार करता था तथा सोलह पक्ष व्यतीत होने पर सुगन्धमयी श्वास लेता था। इस प्रकार पूर्व में तपश्चरण के प्रभाव से उसे दिव्य भोगों की उपलब्धि हुई। वह देवियों के साथ विभिन्न भोगों का उपभोग करते हग सुख-समुद्र में संलग्न रहने लगा।
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