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पंचम अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
वोर धोर गण सुभट निज, हन्यो कर्म सन्तान। रौद्र परीषह जीत यो, बन्दौं दायक ज्ञान ॥१॥
चौपाई सदा मग्न रुख सागर मांहि, तिष्ठ देव लेश दुख नाहि । उपमा रहित मनूज यह लोक, धर्म ध्यान पाल तन शोक ।।२॥ दूजौ द्वीप धातकी खण्ड, पूरब दिशा दिपं परचण्ड । पूर्व विदेह सु उत्तम थान, देश पुष्पलावती बखान ।।३।। पूरब व्रत वर्णन सब जान, पुण्डरीक नगरी सु महान । सदा शाश्वती अति विस्तार, वरणत कौन लहै बुध पार ॥४॥
___ दोहा काल चतुर्थ सदा तहाँ, द्विज कुल होय न रंच । प्रायु कोटि पूरबतनी, देह धनुष शत पच ॥५॥
चौपाई पति सुमित्र भूपति नर ईश, नावं बहुत राय ता शोस । नाम सुव्रता रानी तास, शीलवंत व्रत अकित तास ॥६॥ एक दिना दिश पच्छिप याम, पंच स्वप्न देख अभिराम । चंद्र दिवाकर मेरू उतंग, सजल सरोवर सिंधू तरंग ॥७॥ उठी प्रात पाई प्रिय पास, रात स्वप्न फल पूछे जास । सब नरेन्द्र बोले बिहसत, तुम सुत ह है जगत महत ।।।। चंद्र स्वप्न फल निर्मल गात, सूरज तेजवंत परिघात । मेरू समान गरिष्ठ जु' होय, सजल सरोवर बहुगुण सोय ॥ सागर सम गंभीर अपार, बहुत राय माजा शिर धार । सुनै स्वप्न फल हिय विहसंत, जिनमंदिर फिर गई तुरन्त ॥१०॥ महासुक्र सों चयकर सोय, गर्भवास लोनों तई जोग । नमो पास जब पूरण भयो, शुभ दिन लग्न जन्म तब लयौ ॥११॥ नाम दियो प्रियांमत्रकुमार', सब जनको प्रिय करता सार । मात पिता प्रति प्रानन्द कियो, बंदो जने दान यह दियौ ॥१२॥ बजे मृदंग ताल कंसाल, पटह प्रादि वादिव रसाल । बनवाये जिन सदन अनेक, कोनी पूजा महाभिषेक ।।१३।।
EX सहन किये उपसर्ग बहु, करि विनष्ट निज कर्म । बन्दों जिनवरको सदा, जो है साधन-धर्म ।।
पूर्व विदेहमें पुरकलावती नामका एक देश है। जहाँ पुण्डरीकिणी नामकी नगरी है । बहा सदा ही चक्रवतियोंका निवास रहा है। वहाँके राजाका नाम सुमित्र था और उसको अत्यन्त शोलवत धारिणो सुव्रता नामकी रानी थी। वह देव स्वर्गसे चलकर उन दोनोंका प्रिय मित्र नामका पुत्र हुआ । वह सबका प्यारा था। पिताने पुत्र उत्पन्न होने की खशीमें कल्याणकारिणी
चक्रवर्ती पद १. प्राज का संसार भी स्वीकार करता है कि जैनी अधिक धनवान् भोर सादर सत्कार वाले हैं। इसका कारण उनका त्याग, अहिंसा पावन और महन्त भक्ति है । जब थोडीसी महन्त पूजा करने, मोटे रूप से हिंसा को त्यागने तथा श्रावक धर्म को पालने से अपार धन, माज्ञाकारी सन्तान अनार स्त्री, महापश और सरकार, निरोग शरीर की पिना इ के भी तृप्ति हो जाती है तो भरपूर राज-पाट और संसारी सुख प्राप्त होने पर भी जो इनको सम्पूर्ण रूप से बिना किसी दबाव के त्याग करके भरी जवानी में जिन दीज्ञा लेकर कठोर तप करते हैं, उन्हें इस लोक में राज्य सत्र । और परलोक में स्वर्गीय सुख की प्राप्ति में क्या सन्देह हो सकता है ? भन्द कषाय होने पौर मुनि धर्म पालने का फल यह हुमा कि स्वर्ग की प्राय समाप्त होने पर मैं विदेह क्षेत्र में पुष्वालावती नाम के देश में पुण्डरीकिणी नगरी के राजा सुमित्र की रानी सुब्रता के प्रियमित्रकुमार नाम का चक्रवर्ती सम्राट हुमा । ६६ हजार रानियां, ८४ लारत्र हाथी, १८ करोड़ घोड़े, ८४ हजार पैदल मेरे पास थे। ६६ करोड ग्रामों पर मेरा अधिकार था। ३२ हजार मुकुट बन्द राजा और १५ हजार मलेच्छ राजा मेरे प्रवीन थे। मनवांछित फल की प्राप्ति करा देने वाले १४ रत्न' और नौ निधियां जिनकी रक्षा देव करते थे, मैं स्वामी था।
मैं रात दिन किये गये अशुभ कर्मों को सामायिक द्वारा नष्ट करता और साथ ही अपनी निन्दा करता था कि पाज मुझ से ये पाप क्यों हो गये? इस प्रकार मैं शुभ क्रियानों द्वारा धर्म का पालन करता था और दूसरों की रुचि धर्म में करता था।
एक दिन में परिवार सहित तीर्थकर श्री क्षेमकर जी की बन्दना को उनके समोशरण में गया । भगवान् के सूख से मंसार का भयानक स्वरूप सुनकर मेरे हृदय में बीतरागता प्रागई और छ: खंड के राज्य तथा चक्रवर्ती विभूतियों को त्याग कर जिन दीक्षा लेकर जन साघु हो गया।