________________
होत धर्म सों पण्डित बढ़ विध, धर्म सर्व सुखकारी! धर्म जमत में पूजत उक्तिम धर्म सुगुरु गन भारी॥ इहि विधि जिन मुख, द्वादशप्रेक्षा सुन चक्री बरामे। आयु रमा तन भोग जगत्त्रय, क्षण भंगुर सब लागे ॥११३।।
चक्रवति का वैराग्य वर्णन धिक धिक् यह संसार महावन, भटकत पोर न आयो । ज्यों चौगा नबटा धर डोल, हाथ कछू महि पायो॥ कब्रही जाय नरक दुख भुजै, छेदन भेदन होई । कबहूं पशु परजाय पाय जिय, ध बन्धन बहु जोई ।।११४॥ सुर पद में पर संपति लखि क, राग उदै दुख पावै। मानूष जन्म सूखी नहि कोई, विपत अनेक बढ़ावै ।। मैं चक्री पद भोग घनेरे, भुगते, तपति न होई। जैसे अगिन प्रज्वले तैलसु, डारत शान्त न होई ।।११।। दरशन ज्ञान चरन नि- जियको, बदधि पार पाने । रतै दीक्षा ग्रहण भलो, अब तपकर कम खिराव ।। सकल सपदा जीरन तृणवत्त, छोड़ी नृप अनुरागी । सहस छयान नारि पियारी, मन वच कमकर त्यागी ॥११६॥ सर्वमित्र सुत प्रथम अनुक्रम, राजभार तसु दीनौ । आपुन भूषण बसन उतार, जिन मुद्रा मन लीनी ।। एक हजार नृपति संग चक्री, पंच महाव्रत धारं । गृह तब वन में बसहि निरन्तर, तिन पद हम शिर धारें॥११७।।
दोहा छहों खण्ड संपत्ति घनी, छोड़त लगी न वार । धन मुनीश प्रिय मित्र चित, सुकृत सुवृद्धि अपार ॥११॥
तपवर्णन
चौपाई दुविध प्रकार करै तप घनौ, धीर बोर चित्त पर्वत मनी । ध्यानी ध्यान मध्य बह लीन, तज प्रमाद चउदह मल होन ॥११६।। मूलोत्तर गुण प्रादिक जोय, सम्यग्दर्शन पाले सोय । तीन काल जुत जोग मझार, तीन गुप्ति को सदा विचार || १२०॥
सम्यकत्व, जान, चारित्र तप के योग से एवं क्षमा प्रादि दस लक्षणों से युक्त होता है। उससे मोह और संताप का सर्वथा नाश हो जाता है। मोक्ष की इच्छा रखने वाले भव्य जीवों को मोक्ष-प्राप्ति के लिये उस धर्म का पालन करते रहना चाहिये । सुखी पुरुषों को सुख की वृद्धि के लिये और दुःखी जीवके दुःख को बिनष्ट करने के लिये सदा धर्म का माधय ग्रहण करना चाहिये।
केवली भगवान पुनः कहने लगे--संसार में वही पण्डित और बुद्धिमान है, उसी का स्थान सर्वश्रेष्ठ है, वही जगतपूज्य है, जो अन्यान्य कार्यों को अलग कर निर्मल आचरणों से धर्म का सेवन करता है। इस संसार को तथा अपनी प्राय को विनश्वर समझ कर बुद्धिमान लोग संसार तथा गृह का परित्याग कर देते हैं। भगवान को दिव्यवाणी का चक्रवर्ती पर ऐसा हृदयग्राही प्रभाव पड़ा कि, वह लौकिक भोगों और राज्य से एकदम विरक्त हो गया। उसने मन में विचार किया---प्रत्यन्त खेद है कि, मैने प्रज्ञान में संसार के विषय भोगों का सेवन किया फिर इन्द्रियाँ तप्त नहीं हुई। अतः जो लोग भोगों में लिप्त रहना चाहते हैं, वे मुख तेल मे अग्निवी शान्ति करने का प्रयत्न करना चाहते हैं। जीव को जैसे-जैसे भोगोंकी उपलब्धि होती जाती है, उसी प्रकार उनकी तष्णा भी बलवती होती चली जाती है। जिस शरीर से यह जीव सांसारिक भोगोंका उपभोग करता है, वह शरीर अत्यन्त दुर्गन्धमय और मल मूत्रादि का घर है।
यह राज्य भी पापोंका कारण है। स्त्रियां पापोंको खानि है और बन्ध बगरह कुटम्बी बन्धन के समान है और लक्ष्मी वेश्या के समान निन्दनीय है। विषयादिक सुख हलाहलके समान हैं और संसार को जितनो भी वस्तुएं हैं,वे सबको सब क्षणभुगुर हैं। अधिक क्या कहा जाय, ससार में रत्नत्रय के सिवा न दुसरा तप है और न जीवों का हित करने वाला है । अत: अब मुझे ज्ञानरूपी तलवार से अशुभ मोह का जाल काट कर मोक्षके लिये जिन-दीक्षा धारण करनी चाहिये । संयमके बिना अब तक का मेरा जीवन व्यर्थ ही गया। किन्तु अब उसे व्यर्थ जाने देना किसी भी दशा में कल्याण कर नहीं हो सकता । मन में ऐसा विचार कर प्रियमित्र चक्रवर्ती ने अपने सर्वप्रिय नामकः पुत्र को राज्यका भार समर्पित कर रत्न निधि आदि सारी सम्पदामा का तृणवत पारत्याग कर दिया।
३४२