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शरीर वर्णन ।
दोहा प्रथम चतुर संस्थान सम, वज्र वृषभनाराच । हेम वरण व्यंजन सहित तन निरोग मधु वाच ॥५६॥
अन्य विभूति वर्णन एर कोट हल क्षीर के, खेती करहि किसान । कामधेनु गोकुल विविध, तीन कोट परबान ।।५७।। कोट थान कंचन तने, चक्री नप के गेह । छहों खण्ड भूपति सकल, तिनते अतिवल देह ॥५६॥
बल वर्णन
चौपाई अब सुन मन को भेदाभेद, जात नासै मन को खेद 1 बारह मनुष गहै बल जिती, एक वृषभ में वरते तिती ॥५॥ जो बल बारह वृषभ मझार, निसान एक तुरंग मार हो तुरंग बारह न्यूल लियं, जो बल एक महिष के हिये ॥६॥ महिष पांच सौ जो बल घरं, सो गजराज सहस ता करै। जो बल सो गयद सरवग, सोई एक सिंह के अंग ॥६॥ सिंह पांच से जो बलवान, सो बलभद्र एक में जान । दो बलभद्र धरं बल जोय, सो नारायण के तन होय ॥६॥ नौं नारायण बल धारंत, सो चको तन होय तुरंत । चक्री कोट होय बल जितो, सोई एक देव परिमिती ॥६३।। जो बल कोट देव के प्रङ्ग, तितनो एक इन्द्र सरवंग। तीर्थकर अद्भुत बल कही, तन परमाणु उतने वही 11६४||
दोहा
सहस छ्यान विक्रिया, धारत चक्री अङ्ग । मति श्रुत अवधि जु ज्ञान त्रय, पूरव धर्म मभंग ॥६५॥
मुख्य सम्पदा वर्णन
छन्द चाल अब मुख्य सम्पदा जोई, आग सुनियो भवि सोई। सिंह वाहन सेज मनोगा, प्रारूढ़ चक्रपति जोगा ।।६६।। अति प्रासन तुंग वस्वानो, मणि जाल जटिल परवानौ । सुर ढोरत चमर पनूपा, गंगा जल लहर सरूपा ।।६७॥ विद्यत मणि कृण्डल सोहै, बुति देखत सुरनर मोहै । वर कवच प्रभेद महाना, जामैं न भिदै रिपु बाना ॥६॥ विषमोचक पादुक दोई, पद पद विषमुचक सोई । प्रजितंजय रथ सुखदाई, जलप सो थलवत जाई ॥६॥ पनि वज्रकाण्ड धर चापा, सचढ़ावत नरपति पापा । अमोघ वाण हाथ में लेई, रण में जय को सो देई ॥७॥ तडा अति विकट महाना, पून खण्डन शक्ती जाना । सिंहाटक बरछी सौहै, ताको नर देखत डोहे 11७१॥ छरी लोहबाहनी जानौ, दामिन गण चमकत मानौ। ये वस्तु सबै भूथाना, चक्रो तज होत न माना ॥७२॥ दल मै ले सब गिरदाई, भू बारह योजन थाई । बारह विध प्रानन्द भेरी, बारह जोजन ध्वनि घेरी ||७३|| है बजघोप जिस नामा, बारह पट नप के धामा । गंभीरावर्त गरीसा, शख शोभन रूप चौवीसा ७४।। रमणीक ध्वजा बह दीसा, मिति कोट जु पड़तालीसा | इत्यादिक वस्तु अपारा, सब बरणत लहै न पारा ।।७५॥
पाण्डक, नैसर्य, माणव, शंख, पिगल ये नौ निधियां भी प्राप्त थीं, जो चक्रबर्ती के घर में भोगोपभोग की सामग्रियां प्रस्तुत करती रहती थीं।
चक्रवर्ती का पुण्य इतना प्रबल हया कि उयानवे करोड़ ग्राम तथा योग्य सम्पदायें इसे प्राप्त हुई। मनुष्य देवों द्वारा उसकी पूजा होने लगी और दशांग भोगकी सामग्रियों का बड़े आनन्द पूर्वक उपभोग करने लगा। प्राचार्य का कथन है कि, धर्मसाधन से ही इस जीव के समग्र मनोरथोंकी सिद्धि हुआ करती है । अर्थ धर्म कामको सम्पदायें और मोक्ष को इसी से प्राप्ति होती