________________
चार पर्व प्रोषध को धरै, निषदिन सदा पाप परिहर । निरारम्य हिरदै शुभ ध्यान. अशुभ ध्यान की कीनी हान ||१६॥ हेम रतनमय जिनगृह सार, करबाये बहु तुग विचार । पर प्रतिमा कीनी जिन तनो, भक्ति प्रतिष्ठा प्रादिक धनी ॥७॥ अष्टद्रव्य जल ग्रादिक जान, बहु सामग्री सहित महान । श्री तीर्थकर पूजा करे, तिन गुण कारण कर सिर धरै ॥१८॥ मुनिको प्रासुक देई प्रहार, विधिपूर्वक अति शुद्ध विचार । भक्ति सहित बंदें नरईश, कोरति पुण्य बढे जग शीस ||६६।. जहं निर्वाण भूमि जिनतनी, तथा विम्ब अरुमुनि शिर मनी । जाय तहां मुनि बन्दन हेत, धर्म धनी वर भक्ति समेत ॥१०॥ सुनै केवली वचन पुनीत, तत्व अर्थ गर्भित गुणरीत । श्रावक जती धर्म सुखदाय, भेदाभेद कह्यो समझाय ।। १०१॥ सामाइक विध पाल सोय, निशदिन छहों काल जुत होय । निज निन्दा परिगहीं कर, मन विवेक बहू धीरज धरै ।।१०२॥ . इन्हें आदि जे शुभ प्राचार, करें धर्म घर हिये विचार । देहि और को शुभ उपदेश, भबिजन प्रीति सुजगत महेश ।।१०३।।
दोहा ज्यों वारिज जल में बस, करन उससे प्रीत । त्यों चक्री संपति घनी, चल धर्म की नीत ||१०||
जोगीरासा एक समै चक्री नर-नायक, सब परिवार समेत । सीमंधर मुनि समोशरण, थित गये बन्दना हेत।। तीन प्रदक्षिण दे शिर नायौ, पूजा विधि बसु कीनी। भक्ति सहित गणराज प्रणाम, नरकोठा थिति लीनी ॥१०॥ ता हित जिन दिव्यध्वनि सुदर, गणधर प्रति परकाशी । द्वादश विध अनुप्रेक्षा चिंतन, धर्म-दुविध तहां भासी ।।
बारह अनुप्रेक्षाओं का वर्णन आयुष पुरण वपु भोगादिक, राज्य रमा सुख साध्यो । दामिनि सम सो चंचल दोस, तातं शिव पाराध्यौ ॥१०६।। मरण कलेश दुखादिक भारी, जीव सहै नित सोई । यात धर्म धरो भवि दृढ़ मन, शरण न जग में कोई ॥ दुःख दुरित जत कर्म फिराक्त, जगतंजान न देवें । तातै यह संसार भ्रमण तज, रत्नत्रय व्रत सेवें ॥१०७।।
राज्य-द्वितके लिये वह मनियोंको प्रासुक आहार-दान भी दिया करता था। कभी कभी तीर्थकर गणधर और योगियोंकी वन्दना पजाके लिये यात्रा किया करता था। वह चक्रवर्ती सर्वदा अंग पूर्व के ग्रंथों को श्रवण करता तथा दोनों प्रकार से धर्मके स्वरूप का विचार करता था।
वह रात दिन किये गये अशुभ कर्मोको सामायिक प्रादि शुभ कार्यों द्वारा नष्ट करता और साथ ही अपनी निन्दा करता था 1 कि, प्राज मैंने ये पाप किये । इस प्रकार वह शुभ क्रियाओं के द्वारा धर्म का पालन करता था, और दूसरों को उपदेश देता था।
एक दिनकी घटना है। उसदिन वह चक्रवर्ती राजा अपने परिवार वर्ग के क्षेमंकर जिनेश्वरको वन्दना करनेके लिये गया। वहां पहंच कर उसने केबली भगवानकी तीन प्रदक्षिणा देते हुए मस्तक नवाकर जलादि पाठ द्रव्योंसे उनकी पूजा की और मनष्यों के कोठे में जाकर बैठा। उस चक्रवर्ती के हित के लिये वे भगवान अपनी दिव्य ध्वनि द्वारा बड़ी प्रीतिके साथ प्रोपदेश करने लगे। उन्होंने कहना प्रारम्भ किया-संसार के आयू, लक्ष्मी भोग आदि इन्द्रिय जन्य सुख विद्यतके समान क्षणभंगर और विनश्वर है, अतएव भव्य जनोंको सदा मोक्ष का ही सेवन करना चाहिये । संसारमें जीवको मत्यु रोग क्लेश
१. अनित्य भावना राजा रणा छत्रपति, हटियन के प्रसवार । मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार ।। स्त्री, पत्र, धन प्रादि संसार के सारे पदार्थ नष्ट होने वाले हैं । जब देवी-देवता और स्वर्ग के इन्द्र तथा चक्रवर्ती सम्राट सदा नहीं रह सके तो मेरा शरीर से रह सकता है। केवल प्रात्मा ही सदा से है पीर सदा रहने वाली है। इसके अलावा जितने भी संसार के पदार्थमा प्रतिक्षामात्मा से भिन्न हैं, एक दिन जनसे अवश्य अलग होना है। पुण्य के प्रताप से संसारी पदार्थ स्वयं मिल जाते हैं और अशुभ कर्म पाने पर स्वयं नष्ट हो जाते हैं, तो फिर उनकी मोह-ममता करके कर्मों के पाश्रय द्वारा अपनी प्रात्मा को मलीन करने से क्या लाम?