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छप्पय प्रथम सुदर्शन चक्र खण्ड छह साधन समरथ, चरम दुसरो जान वज्रमय नीर भेद पथ ।
मणि काकिणि ये रतन चाहपुरज सम नोई. लिन गुफा महार जाग साधन ना सोई॥ खले दण्ड सों द्वार गिरि, छन्त्र ज्योति अधिकाइ हित । चन्द्रहास प्रसि देख तन, वैरीगण भजि जाय नित ॥३७॥
सेनापति प्रति शूर करत दिग्विजय निरन्तर, बनिता चेतन रतन महा बल धारत अन्तर ।
स्थपति भद्रमुख नाम कलाको विद अधिकाई, हुकम पाय गृहपति तुरत गृह देत बनाई ।। गज रण में जय को करै, हम चढ़ि गुफा निहारिये । प्रोहित वर विद्याधनी, यह गुण रतन विचारिये ॥३।।
दोहा भब प्रतेक नौ निधि तने, कहीं नाम गुण रूप। जनी बिन जाने नहीं, इनको सहज स्वरूप ।।३।।
नवनिधि वर्णन । प्रथम काल निधि जानिये, महाकाल पुनि दोय । नैसर्गिक पाण्डुक पदम, मानव पिंगल सोय ॥४०॥ पाठम शंख निधान निधि, सर्व रतन नम येह । कहीं जिनागम के विषे, वरणों गुण कछ तेह ॥४१॥
पद्धडि छन्द । अब प्रथम कालनिधि गुण अपार, पुस्तक अनेक दातार सार । मुनि महाकाल दूजो मनोग, असि मषि साधन सामग्री जोग ॥४२॥ तीजी नैसपिकि निधि महान, नाना विध भाजन रत्नखान | चौथी निधि पांडक नाम सोय, रस धान्य सम सफल तोय ॥४३॥ निवि पद्म पाँचवीं सुक्ख खान, मनवांछित देय जु बसन दान । मानव निधि छटवीं परम हेत, सो प्रायुध जाति अनेक देत ।।४४।। सप्तम निधि पिगल शुभ अनूप, सब भूषण दायक सहज रूप । निधि शस्त्र प्राटवी बहु पुनीत, वादित्र सकलदायक सुनीत ॥४५॥ निधि सर्व रतन नवमी बखान, सो सर्व रतन तापर निदान । सिन एक एक प्रति सहस एक, रखवारे जहं प्रापत अनेक ॥४६।।
दोहा
ये नौ निधि चक्रेश की, शकटाकृति संठान । पाठ चक्र संयुक्त शुभ, चौखं टी सब जान ।।४७।। जोजन पाठ उतंग प्रति, नव जोजन विस्तार । बारह मिति दीरघ सकल, वसे गगन निरधार ॥४८॥
नगरादि वर्णन। पद्धडि छन्द
मामले मरस बत्तीस देश, घन कन कंचन पूरण विशेष । बाड़े चहुं ओर जू विपुल बाड़ि, ते कोड़ छयानब गांव माड़ि॥४६॥ है कोट स गिरदा द्वार चार, छब्बीस सहस पुर इमि बिचार। जिन लग पाँचस गांव भुर, ते चार हजार प्रटम्स पर पर निरनदीपेठ सोलह हजार, वे खेट कहै जिनमत मंझार । केवल गिर वैहे वहूं ओर, कर्वट हजार चौवीस जोर ॥५शा पटन हजार अडताल जान, उपजें जहं बहुविध रत्न खान । इख लख द्रोणामुख सहस घाट, ते वसत समुद्रतट दुःख काट ॥१२॥ गिरि ऊपर सम वाहन वसान, चौदह हजार मन हरण थान। मठवास हजार दुरग माहि, रिपृको प्रवेश तह रंच नाहि ।।11 उप समद मध्य जानो महान, तह अन्तद्वाप छप्पन प्रमान । रतनाकर पुर छब्बिस हजार, बहसार वस्तु को सो भंडारा
न कळक ससात लेख? जहं रतनधरा चहुं ओर देख। ये पुर राजे सब पाप जोग, जिनधरमी तन तह कर भोग ।।५५||
सचक्रवर्ती के यहां चौरासी हजार पंदल पुरुष थे और हजार गण बाले देव थे। अठारह हजार म्लेच्छ राजानों का पास इसके चरण कमलों की पूजा में सदा लीन रहता था । सेनापति, स्थपति, स्त्री, हम्यपति पुरोहित, हाथी, घोड़ा, दण्ड, चक्र चर्मकाकिणी, मणि, छत्र, प्ररि ये चौदह रत्न उसे प्राप्त थे, जिनकी देव लोग रक्षा करते थे। पद्म. काल महाकाल