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कैसे हित पर अहित होम कंने कृत्य कृत्य विलय तय बोले मुनि वचन विचार, सुन भो भव्य धर्म चित भार ।। १२७ ।। दरशन ज्ञानप्रसाद अनेक गुण जुत रूप महात्मा विवेक लक्षण चेतन है जु पवित्र गंव जोग सो देह मनित ।। १२५ । जैसे पक्षीगण बहु मिले, तुंग तरूवर पं निश हिलें । तसे कुल कुटुम्ब परवीन, आप आप भावन गति लीन ।। १२६ मोह महामद वश जग जीव, तास दुःख लहै श्रथ कीव । सुक्ख शाश्वतौ है निर्वान रहित परिग्रह माशा हान ।। १३० तप रत्नत्रय सम नहीं बोर, हित करता जनको सब ठोर इन्द्रिय विषय अशुभ यह यान तासम ग्रहित और नहि जान ।। १२१ ।। यह भव पर भव सुख त्रिकाय कृत्य वस्तु को यही स्वभाव । दुःख अधिक जब नरको होइ, सो अकृत्य कारण अवलोई ।। १३२ । यह प्रकार मुनि वच सुन सार, परिसंवेग धर्म परिहार देह आदि जग भोग अनेक, छोड्यो ज्यों जीरण तृण एक ॥। ज्यौ कुटुम्ब राज्य अरमान जान्यो भार यथा पाषाण अंगीकार कियो तप साज, निजरा यही सुगम मुनिराज || बाहिज अंतर परिग्रह तय, मन वच काया श्रातम भज्यो । मुक्तिपुरी की इच्छा करो, जैनी दोक्षा नृप आदरी || १३५ ॥ कर्म कुलाचल घाते सबै तप बच्चायुध कर मुनि सये दुष्ट अक्ष पर मन को रोध, ध्यान करें शुभ सम्यक् ।। १३६ ।। । शोध कन्दर अद्रि अरण्य अनेक गुफा मशान वसें मुनि एक सिंह समान सदा विहरन्त धर्म ध्यान घर हिरदे संत ।। पदवी ग्राम बेटपुर जिते विहरे यापय शोषते ग्रस्त होई रवि अन्य प्रवेश दया अवं विष्णुं तहां देश ॥ प्रावुद्द काल रूख के मूल, जहाँ रहे व्यापै बहु शुल । लपर्क दामिन संझावाउ, वरसे मनों वज्र को घाउ ॥ हेम काल मुनि तिष्यें जहां तंग नदी तट हिमकुल तहां। ध्यान अनाहत वारं धीर, बाधाशोत सहैं वर वीर ।। ग्रीम सूर्य किरणको तेज पर्वत पीठ दिला सिर सेज करें ध्यान उत्सर्ग महान, बाबा उष्ण अग्नि परवान ॥ इत्यादिक अस्तर त र क को जोर। वाहि आपांतर परवोन ध्यानाध्ययन मध्य सो सीन सबै मूल उत्तरगुण जान, पाले प्रीति सहित अधिकात पन्त समय स्नान चादरी, ते खानपान परिही सम्यकदरशन ज्ञान चरित्र, तरस दाइक मोक्ष पवित्र । य चार प्राराधन राषि, मन वच काय सुकरकै साधि ॥
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बुद्धिमान लोग उसी कार्य पर दृढ़ रहते हैं, जिससे लौकिक और पारलौकिक दोनों ही सुखों की प्राप्ति होती हो। मनुष्य को वे कार्य कदापि न करके चाहिये, जिनसे दूसरोंको कष्ट पहुंचे, उनकी बुराई हो। इस प्रकार मन में विचार कर हरिपेण महाराज को विनाश की हुतानिकी ओर प्रेरित करने वाले भागों से विरक्ति उत्पन्न हुई। वह धर्म - बुद्धि हो अपने हित साधन में संलग्न हुआ। एक दिन उसने अपने समस्त साम्राज्य की मूर्तिकायत समझ कर उसे परिस्थान कर दिया और तप ग्रहण करने के उद्देश्य से घर से निकल पड़ा। वह सर्व प्रथम उस वन में पहुंचा, जहां अंगपूर्व भुत के जानकार श्रुतसागर नामके मुनि विराजमान थे। उसने वहां पहुंच कर उन्हें नमस्कार किया।
उस मोक्ष के इच्छुक राजाने मन वचन काम की शुद्धतापूर्वक
और अन्तरंग परिग्रहों का परित्याग कर बड़ी प्रसन्नता मे जिन दोक्षा धारण कर ली। उसने पुनः कर्म रूपी पर्वतको ध्वस्त करने के उद्देश्यसे तप रूपो बसका आश्रय ग्रहण किया और इन्द्रिय-मन रूपी वैरियों को परास्त करनेके लिये प्रशंसनीय शुभ धर्म को धारण किया। वे मुनि रूप में सिकेरा धर्मध्यान और शुभल ध्यानकी सिद्धि प्राप्त करने की साकांक्षासे पर्वतों, गुफाओंों वनों और श्मशान आदि स्थानों में निवास करने लगे। उनकी दिनचर्या यह हो गया कि दिन के समय तो बनादि स्थानोंमें विहार करते थे और सूर्यके अस्त हो जाने पर रातकी ध्यानादि धारण करते थे। वे योगीराज सर्प आदि हिंसक जन्तुओं से भरे हुए स्थानों में हवा और प्रति भयंकर वर्षा में भी वृक्षके तसे ध्यान लगाकर बैठते थे।
शीत कालमें चौराहे पर तथा नदीके किनारे उनकी ध्यान-समाधि लगती। वे शीत-गर्मीको बाधाको रोकने में सर्वथा समर्थ हुए। वे ग्रीष्म ऋतु सूर्य की किरनों से सप्त पर्वतकी शिला पर अपने ज्ञानरूपी जल से भीषण मालाप को शान्त कर बासन लगाते थे। केवल इतना ही नहीं, वे ध्यानकी सिद्धि के लिये कठिन कामकुरा वा तपका पालन करने लगे। उन्होंने अन्तरंग तर
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