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अमृत वापिका न्वहन कराय, देविन सहित जिनालय जाय । रत्नमयी तह प्रतिमा देख, हिय उमगायो हरष विशेख ।।५।। प्रष्ट द्रव्य से पूजा करी, भक्ति विनय पूर्वक विस्तरी । फिर नन्दीश्वरादि जिन मेह, कोनो पूजा हिय धर नेह ।।५।। गणधर मादि मुनीश्वर पाय, प्रणमैं सुरपति चित्त लगाय । तत्द अरथ आदिक तहं सुन, धर्म शर्म करता हिय गुने ।।५३।।
बोहा फिर जिन प्रस्थान गयौ, पुण्यजनित थिय पाय । देबिन सहित विमान में, तिष्ठं सुख समुदाय ॥५४॥
चौपाई इत्यादिक बहु पुण्य समेत, धार सो चेष्टा शुभ हेत । सप्त हाथ तन उचित मनोग, नेत्र विवजित निद्रा रोग ॥५शा मण्डित मति श्रुत अवधि विज्ञान, विक्रिया ऋद्धि अधिक बलवान । बीते बरस सहस जब दोय, लैहि अहार सुधामय सोय ।।५६।। पक्ष दोयमें रति तन होइ, मानसोक सब भुगते सोइ । देखै रूप बिलास अपार, नृत्यत दिव्य योपिता सार ।। ५७।। पर्वतादि उद्यान मझार, देविन सहित रमैं कर प्यार । द्वीप समुद्रमसंख्य विचार, विहरै सहित विभूति अपार ॥५८|| सागर दोय आयु परमान, सप्त धातु मल रहित महान । अमृत समुद सम सुक्ख अनेक, सरब दुःख ते रहित सु एक ॥५६॥
दोहा
विविध भोग तिन भोगवे, पूरव चरण प्रताप । काल जात जान्यो नही, सुखसों देव जु आप ॥६०||
चौपाई
प्राग घातको द्वीप महान, पूर्व विदेह सु उत्तम थान । विजयारध पर्वत तह दोस, है उन्नत जोजन पच्चीस ॥६॥ सोहै कूट जिनालय जहां, वन श्रेणी पुर प्रादिक तहां । ताकी उत्तर श्रेणी मझार, मंगलावति है देश विचार ।।६।। नगर कनकपुर सोहै जहां, सुवरणमय जिनमंदिर तहां । कनक पूर्व राजा तहं जान, प्रिया कनकमाला तस मान ।।६३।।
हो यौवनावस्था प्राप्त हो गयी। वहां पर उस अवधि ज्ञान के द्वारा व्रतों के शुभ फल ज्ञात हो गये। अत: धर्मके माहात्म्य की प्रशंसा कर वह धर्म-धारण करने में संलग्न हो गया ।
पश्चात वह देव अकृत्रिम चैत्यालय में जाकर अष्ट द्रव्यों सहित प्रहन्त देवको पूजा करने लगा। वह मनुष्य लोक में मन्दीश्वरादि द्वीपों में अपने मनोरथों को सिद्धिके लिये जिन प्रतिमाओं की पूजा कर और गणधरादि मुनीन्द्रों को हर्ष सहित
करके उनसे तत्वों का स्वरूप सुनकर धर्मका उपार्जन कर अपने स्थान को लौट आया। उसने अपने पूर्वकृत पूण्योदयसे देवियों तथा बिमानादि सम्पदाओं को प्राप्त किया।
इस तरह उस देव ने विभिन्न रूपसे पुण्य का उपार्जन करता हमा सान हस्त प्रमाण दिव्य शरीर धारण किया, जिसकी पाखों के पलक सदा खुले रहते थे। उसे पूर्व में नरककी भूमि तक का अवधिज्ञान और विक्रय ऋद्धि का बल था। दो हजार वर्ष व्यतीत होने पर हृदयसे कड़ने वाले अमृतका आहार करवा था तथा तीस दिन के पश्चात् थोड़ी श्वास लेता था। पौर देवांगनाओं आदिका नत्य देखा करता था। वह बनों पर्वतों पर अपनी देवियों के साथ कोड़ा-रत रहता था और अपनी इसछा के अनसार संख्यात द्वीप समुद्रों में विहार करता रहता था । इन्द्रिय सुख रूपी समुद्र में मग्न उस देव ने दो सागरकी प्रायु प्राप्त की। उसका अरीर धात मल और पसीना से सर्वथा रहित था। इस प्रकार श्रेष्ठ चारित्र पालन कर उपार्जन किये हुए पुण्यके प्रबल प्रतापसे उसे भोगोपभोगकी सारी सामग्रियां प्राप्त हुई। उसने इस प्रकार कितने समय बिताये, यह उसे ज्ञात न हो सका।
घातको खण्ड के पूर्व विदेहमें मंगलावती नामक एक देश है। उसके मध्य विजयार्द्ध पर्वत है । जो दो सौ कोश ऊंचा पर्वत की उत्तर धेणी में कनकप्रभ नामका एक नगर बड़ा ही रमणीक है। वहां कनकपुग मामक विद्याधरों का राज्य करता था। उसको रानी का नाम कनकमाला था। सिंहकेतु नामका देव स्वर्ग से चयकर सूवर्णकी कान्ति के