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केलिवृक्ष उपजो बहुबार, नबै सहस भव धरौ असार । सहस तीन चन्दन तरु होय, पंच कोडि भव कनयड़ सोय ।।१२४।। गणिका भवधर साठ हजार, पांच कोड़ तन पसियाधार । बीस कोड़ गज उपज्यो भार, साठ कोड़ खर भी दुखधार ।।१२।। तीस कोड़ भव श्वानहि भाख, भयो नपं सक साठ जुलाख । बीस कोड़ नारी तन साख, रजक भयौ नर नबंजु लाख ॥१२६।। पाठ करोड़ घर तुरी प्रजाई, बीस कोड़ मंजार सुभाइ। नार गर्भसो गिरयौ सोइ, साठ लक्ष तन त अब लोई ।।१२७।। साध लाख भव नगपद पार, नहि पन छोड्यो कर्म उपाय । कबहू दान सुपात्रै दियो, ता फल भोग भूमि सुख लियौ ॥१२८।। असी लक्ष पुन सर पद लेह, असी लक्ष भव धारी तेह । पुन पुन भ्रम संसार मंझार, बहु पराजय दुःख की धार ।।१२६।। कर्म-संखला बन्ध्यौ फिर, फिर-फिर भवसागर में परै। सर्व दुःख नाना प्रकार, मिथ्यामति-तरु फल्यो अपार ।।१३०।।
अस्लिाम प्रगनि माहि परजर, पिये हालाहल कोई। समुद मांहि जो पर, किमपि वर है भवि सोई ।। खाय सिंघ अहि खाय, चोर भयको करें। प्राण हनत जो होय, न मिथ्या आदरै ।।१३१॥
सोरठा
सरसों सम ह पाप मिथ्या, मेरु समान दुख । प्राण अन्त बुध आप, ऐसी पान न कीजिये ॥१३२॥
प्राप्त कर काय-क्लेश तप के प्रभाव से सौधर्म नामक पहले स्वर्ग का देव हो गया। उसे यहाँ पर दो सागर की पाय प्राप्त हई और थोड़ी सी विभूति भी उसे मिली। प्रत्यन्त पाश्चर्य की बात है कि जब मिथ्या-दष्टि पुरुषों का निकृष्ट तप भी निष्फल नहीं हो पाता, तब सुतप की तो बात ही दूसरी है।
अयोध्यापुरी में ही स्थूणागार नामक नगर में भारद्वाज नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पुष्पदन्ता नाम की अत्यन्त रूपवती पत्नी थी। वह देव स्वर्ग से चयकर उन दोनों के पुष्पमित्र नामक पूत्र उत्पन्न हना। यहा भा उसन पूर्व संस्कार के बश कुशास्त्रों का ही अध्ययन किया और पुन: मिथ्यात्व कर्मों के उदय से मिथ्या मत में ही लीन हुना। इसलिये वह पूर्व भेष को ग्रहण कर सांख्य मत के अनुसार प्रकृति प्रादि पच्चीस तत्त्वों का उपदेश करने लगा। वह मिथ्यामती मन्द कपाय से देवायु को बाँध मृत्यु को प्राप्त हया और उसी सौधर्म स्वर्ग में उसने जन्म लिया। उसकी प्रायु एक सागर हुई तथा बह भोग सम्पदा से सम्पन्न हुआ।
भरत क्षेत्र में ही श्वेतिक नाम के नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जिसका नाम अग्निभूति था । उसकी पत्नी का नाम गोतमी था। वह सौधर्म स्वर्ग का देव स्वर्ग से चयकर अग्निभति ब्राह्मण का अग्निसह नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। वह एकात मत के शास्त्रा का पूर्ण ज्ञाता। किन्तु पूर्व कृत-कर्मोदय के प्रभाव से उसने पूनः परिव्राजक दीक्षा धारण को। पश्चात् प्रायक्षय होने पर उसकी मृत्यु हो गई। पूर्व के अज्ञानतप के प्रभाव से वह सनत्कुमार नाम के तृतीय स्वर्ग में उत्पन्न हुआ और सुख सम्पदा से उत्पन्न उसे सात सागर की प्राय प्राप्त हई। उक्त क्षेत्र में ही मन्दिर नामक एक श्रेष्ठ नगर था। वहाँ गौतम नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वही सनत्कुमार स्वर्ग का देव वहाँ से चयकर गौतम का अग्निभूति नाम का पुत्र हुआ। पूर्व जन्म के सरकारों के वश उसने मिथ्याशास्त्रों का ही अध्ययन किया । अन्त में उसने त्रिदण्डी दीक्षा ही धारण को श्रीर आयु का समाप्त पर मृत्यु प्राप्त कर उसी अज्ञान तप के प्रभाव से माहेन्द्र' नाम के पांचवें स्वर्ग में उत्पन्न हुमा एवं योग्य आयु सम्पदा का उपभोग करने लगा।
उक्त मान्दर नामक नगर में ही सांकलायन नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम मन्दिरा था। वह माहेन्द्र स्वर्ग का देव वहां से चयकर उस ब्राह्मण का भारद्वाज नाम का पुत्र हुआ। वह पूर्व जन्म के संस्का बंधा ही था। इस बार भी उसने मिथ्याशास्त्रों काही अभ्यास किया। कछ समय के पश्चात् उसे बराग्य उत्पन्न हुआ, किन्तु उसने पूर्व की भांति त्रिदण्डी दीक्षा ही ग्रहण की और देवायु का वध कर मृत्यु प्राप्त किया । तप के प्रभाव र में दवयोनि की प्राप्ति हुई, किन्तु वहाँ से चयकर उसे निम्न योनियों में जाना पड़ा। वह असंख्य वर्षों तक निदनीय त्रस-स्थावर योनियों में भटकता हुमा दुःख पाता रहा । प्राचार्य लोगों का कथन है कि, मिथ्यात्व के फल से प्राणि वर्ग को महान क्लेशों का सामना करना पड़ता है।