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एक दिना खगपति दरबार, आई ले गन्धोदक सार । जोवनवन्त पिता देखियो, मन चिन्ता वर की पेखियो ||४|| नैमित्तिक पूछौ तिन जाय, विनय सहित शिर चरण लगाय । पुत्री भर्ता हू है कोय, कहिये मेरो संशय खोय ॥५५| नप बच सन तिन उत्तर दियो, राजा समाधान कर हियौ । केशव प्रथम त्रिपृष्टकुमार, तेरी सता लहै भरतार ।।८६॥ विजयारध की चौई, तुमको ६ चक्री. सोई । नम हैं सब खगपति तुम पाय, नहीं अन्यथा यामें प्राय ।।७।। इहि प्रकार मुनिके वच सुन, निहनौ कर नप मन में गुनै । मुनि अमितेन्द्रतने पद जान, राजा नम पायो निज थान ||५|| अश्वग्रीव को डर मन भयो, यह करण्ड वन में नृप गयौ। तहां जायकै लिखि शुभ लेन, दोऊ पक्ष सुनिर्मल देख ||६| दियौ दूत को हर्ष बढ़ाय, कुल वृत्तान्त कह्यो समझाय। चलो दूत नहि लाई वार, पोदनपुर पहुंचो ततकार ।।६।। परजापति भूपति दरबार, सोहै मनो अमर गण भार। पुत्र सहित बैठयौ नर ईश, नृप अनेक नावं तिहि शीस ||६| दूत पाइ तहँ कियो जुहार, पत्र दियो भूपति कर सार। पोदनाधिपिति पत्र जब लयौ, माथी नाय सुबांचत, भयौ ।।६।। हितको कारज देखो सर्व उमग्यौ हृदय रायको तब। प्रादर बहुत दतका कियो, आसन सुभग बैठका दियौ ||१३|| सबको पत्र सुनायो राय, लिख्यौ यथाविधि हर्ष बढ़ाय । बिजयारथ की उत्तर सैन, रथन पुर नगरी शुभ चैन ॥९४|| नमिके वंश किरण परकाश, ज्वलनजटि राजा गुण राश। विनयवन्त तस पुण्य प्रभाय, विद्याधर वहु से पाय ।।५।। तुम पोदनपुर उदित सुभान, बाहुबली वंशी सुखदान । परजापति राजा अधिकार, सुत त्रिपृष्ठ अरिदल-खयकार ।।६।। स्वयंप्रभा तिनि जोग कूवारि, दई पिता अति प्रीति संबारि । यह प्रकार लेख तब सुन्यो, सबने मनो मानकर गुन्यौ ॥१७॥
उसी पर्वत के प्रत्यन्त मनोहर द्यतिलक नाम के एक नगर में चन्द्राभ नाम का विद्याधरों का स्वामी था। उसकी प्यारी पत्नी का नाम सुभद्रा था । उन दोनों के वायुवेगा नाम की एक अत्यन्त रूपवती पुत्री उत्पन्न हुई । अवस्था प्राप्त होने पर वायुबेगा का विवाह ज्वलनजटी के साथ सम्पन्न हमा। दोनों को सूर्य के समान तेजस्वी एक अर्कको ति नाम का पुत्र और अत्यन्त शुभ परिणामों वाली स्वयंप्रभा माम की पुत्री उत्पन्न हुई। एक दिन की घटना है । वह विद्याधरों के स्वामी को अपनी कन्या को योवन सम्पन्न तथा उसकी धार्मिक प्रवृत्ति देख कर उसके पूर्वभव की जानकारी प्राप्त करने की अभिलाषा हई । उसने सम्भिन्न श्रोतृ नाम के एक निमित्त ज्ञानी को बुलाकर पूछा-कृपाकर यह तो बताइये कि इस पुत्री को कौन सा पुण्यवान पति प्राप्त होगा। राजा के प्रश्नोत्तर में निमित्त-ज्ञानी ने कहा-महाराज, आपकी पुत्री बड़ी भाग्यशालिनी है। वह अर्द्धचक्री नारायण (त्रिपुष्ट) की पटरानी होगी। वह अर्द्धचक्री नारायण तुझे विजयाध के दोनों ओर का राज्य दिलवाने में समर्थ होगा। इसमें किसी प्रकार का सन्देह करना उचित नहीं है। विजयाध का राज्य प्राप्त हो जाने पर तु विद्याधरों का स्वामी होगा। निमित्त ज्ञानी के वचनों पर विश्वास कर, राजा ने इन्द्र नामक अपने मन्त्री को बुलाकर उसे पत्र लिखने का आदेश दिया। पत्र लिखा गया और वह लिखित पत्र लेकर मन्त्री ने स्वयं पोदनपुर को प्रस्थान किया। वह मन्त्री-दुत प्राकाश मार्ग होकर शीघ्र ही पूष्पक रम्यक वन में जा पहुंचा।
इस पोर त्रिपृष्ट में भी किसी निमित्त जानी के द्वारा सारी घटनायें जान ली थीं । दूत के आगमन की बात भी उसे ज्ञात थी। बह बड़े हर्ष के साथ दूत की अगवानी करने के लिये आया। मंत्री दूत को उसी समय राजा प्रजापति के सामने लाया गया दत ने मरतक नवा कर पोदनापुरेश्वर के समक्ष पत्र रख दिया और अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। पत्र के भीतर महर छाप थी, इसलिये उरो मुख्य कार्य सूचक' पत्र समझा गया। राजा ने पत्र पढ़ने की तत्काल आज्ञा दी। पत्र खोल कर पढ़ा गया। उसमें लिखा था:
पवित्र बुद्धि, न्यायी महा चतुर नमिराजा के वंश में सूर्य के सदश विद्याधरों का पति ज्वलनजटी रथनपुर शहर से ऋषभ देव मे उत्पन्न वाहबलि वंशीय पोदनपुर के स्वामी महाराजा प्रजापति को स्नेह पूर्वक नमस्कार । कुशल के पश्चात सविनय निवेदन है कि, प्रजानाथ ! हमारा तुम्हारा सम्बन्ध पूर्व पीढ़ियों से चला आ रहा है- केवल वैवाहिक सम्बन्ध ही नहीं है। अतएब मेरे पूज्य त्रिपुष्ट नारायण के साथ मेरी पुत्री स्वयं प्रभा लक्ष्मी की भांति. प्रेम विस्तारित करे अर्थात मेरी पत्री के साथ पआपके पुत्र का विवाह हो, तो अत्युत्तम हो ।