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दोऊ पक्ष विशुद्ध महान, पूछत जोग कार्य नहि मान । है बड़भाग त्रिपृष्ठकुमार, स्वयंप्रभा मिलयौ गुणभार ९ शिर नवाइ तब बोलो दूत, मो वच सुन भो नृप गुण जूत । पूर्ण वृतान्त कह्यौ समझाय, अश्वग्रीव को भय दुखदाय ।। ६६ ।। सुनकै भूप महा प्रताप, एक मत हूँ दीनो ज्वाय । अश्वग्रीव को भय मत करो, अपने चितको चिन्ता हरी ॥१००।। बाकी आयु घटी जो होय, हमसों रार करें बहु सोय। या कह दूत विदा नृप कियो, दान मान बहु ताकी दियौ ।। १०१॥ चाल्यो तुरंत न लाइवार, पहुंच्यो जाय राय दरबारकज सिनसनल सिनियझरे राजा कर आनन्द लह्यो।।१०शा अर्ककीर्ति पठ्यो जिन पूत, स्वयंप्रभा ले दल सन्जत । हर्पवान चाल्यो भूपाल, पोदनपुर पहच्यो तत्काल ॥१०॥ विधि विवाह की कीनी जाय, प्रीति सहित दीनी खगराय । स्वयंप्रभा पटरानी भई, रूपकला गुण प्रभुता ठई ।।१०४।। सिंहवाहिनी विद्या सही, गरुणवाहिनी दूजी लही। देखो पुण्यतनों परभाय, विद्याधर घर ही दे जाय ॥१०५|| प्रब विवाह की वार्ता सबै, अश्वग्रीव नुप सुनियो सवै । कोप्यो अति पातु ज्यों तौय, अग्नि ज्वाल तव उठ्यो सोय ।।१०६ बई प्रकार बह सेना संग, गज घोड़े रथ यादि षठंग । चक्र रतन पालंकृत सोई, आयो पोदनपुर अवलोइ ।।१७।। तिन आगमन सुनौ नरनाथ, चलो त्रिपृष्ठ भ्रात ले साथ । हाथो मादिक और तुरंग, सेना नाथ चल चतुरंग ॥१०॥ गये संग्रामभूमि में दोय, भावी अर्धचक्री है सोय । ज्वलनजटी मायौ तिहि ठाय, सेना सज अरिगा आय राय बहु इनको मिलें, अश्वग्रीव के सन्मुख चले । कटक दिखाव भयो दुहु और, लरन लगे जोधा बहु घोर ।।११०॥
दोहा लरै सुभट दुहु और के, करें परस्पर घाव । ज्यों पतंग दीपक परें, देइ नैक नहिं चाव ।।१११॥
करखा छन्द जुरी दोउ सेना करै युद्ध ऐना, लरे, मुभटसों सुभट रण में प्रचार । लर व्याल सों व्याल रथवान रथसौं, तहाँ के तसौं कुंत किरपान झार ।। जुरे जोर जोधा मुरै नैक नाही, टरं आपने राय की तेज सारै। कर मार घमसान हलकंप होतो, फिरे दोय मैं एक नहीं कोई हारै ।।११२॥
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छटत रार दूह और गगन छायो सही। मानों बरषत मेघ अवनि उपर रहीं। रुधिर धार तह देखि सुकायर भज्जहीं। सुभट शूर वर वीर सु सन्मुख गज्जहीं ।।११३॥
राजा प्रजापति पत्र सुनकर मुग्ध हो गये। उन्हें उक्त भावी सम्बन्ध से बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उत्तर में कहातुम्हारे राजा को प्राज्ञा मुझे शिरोधार्य है। मंत्री दूत अादर और दानादि पाकर वहाँ से शीघ्र ही लौटा। वह बड़ी द्रत गति से रथनपुर आ पहुंचा। उसने आते ही राजा ज्वलनजटी को यह सब सन्देश सुनाया। ज्वलनजटी ने बड़े उत्साह के साथ अपनी पुत्री का विवाह वैवाहिक विधि के अनुसार श्रिपृष्टकुमार के साथ कर दिया । उस कन्या का स्वरूप अवर्णनीय था। अर्थात यह दूसरी लक्षमी ही थी। वस्तुत: पुण्योदय से दुलंभ वस्तु भी अनायास ही प्राप्त हो जाती है।
पुनः वह विद्याधर पति ने अपने जामात को सिंहवाहिनी तथा गरुड़ वाहिनी ये दो विद्यायें प्रदान की। पर इस विवाह की बात जब राजा अश्वग्रीव ने सुनी तो उसके क्रोध का ठिकाना न रहा । विद्याधर राजाओं को साथ लेकर यूद्ध के लिए प्रस्तुत हो राजा रथन पुर के पर्वत पर जा पहुंचा। इधर त्रिपृष्ट भी अपनी सेना सजाकर कुटुम्बियों के साथ पहुंच चुका था। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुमा । चक्री त्रिपृष्ट ने अपने बाहुबल के प्रताप से अश्वग्रीव पर विजय प्राप्त कर ली।