________________
पूर्व विपाक तनी फल जान, सप्त रत्न आलंकृत मान । भूचर खेचर व्यंतर देव, सोरह सहस करें नृप सेव ।। १३३॥ सोरह सहस भूपकी सुता, परणी रूप कला संयुता । विविध भोग भुगत सुकुमाल, सुखसों जात न जानौं काल ।।१३४।। मरण अयंत रम्यौ जगमाहि धर्मदान विधि जान्यों नांहि । ज्यों दिन अन्ध उलूका होइ, भानु उदोत न जानै सोइ ।।१३।। वह प्रारम्भ परिग्रह घोर, श्वभ्रवास पायौ ता जोर । विषयन में आसक्त अपार, बांधो दुर लेश्या दुखकार ||१३६।।
दोहा
छोड़े प्राण शरीरत, रौद्र ध्यान सों घोर । पूरब पाप विपाक कर, गयो सप्तमें घोर ॥१३७॥ कथा तहाँ के कष्ट की, को कर सके बखान । भुगतं सो जानै सही, के जान भगवान ।।१३।।
सामान्य नरक वर्णन
दोहा घटाकार घिनी जहां, अन्ध अधोमुख होई । सम्पूरण तन ऊपजे, अन्तर घटिका दोइ ।।१३६॥ तल शिर ऊपर पाँव है, पर भूमि में प्राय । बौछु एक हजारत अधिक वेदना पाय ॥१४०।। उलछत जोजन पांचर्स, नरक सात में मांहि । विषम वज्र कष्टमयी, परें भूमि फिर प्राहि ।।१४१ ।। देख तासको नारकी, मारै निरदत होय । पूर्ण असाता के उदय, चिन्तै मन में सोय ॥१४२।। कौन भयानक भूमि यह, सब दुख थानक निंद । रौद्रवरण ये कौन हैं, वेदना दाइक विन्द ।।१४३।। को मैं कह पायो इत, एकाकी सुख नाहि । कौन कर्म यह ऊपज्यो, भूमि भयानक माहि ॥१४४॥ इत्यादिक चिन्ता करत, अवधि विभंगा पाय । शवभ्र कप जानौ पयौं, निज परको दुखदाय ।।१४।। पूरब रस लोलुप हती, भाषे वचन लवार । लग नरन को कटुक सम ज्यों असि प्रति दुखकार।।१४६।। पर त्रिय आदिक वस्तु जे, सेई हटकर जोय । परधनमैं सब हर लियौ, पापबंध जिय होय ॥१४७।। मैं अखाद्य खाई सवै, पीई जिती अपीय । अरु असेय सेई हतों, सौ अब यह दुख लीय ॥१४८।।
उपार्जन किये पुण्योदय के प्रताप से चकादि सप्त रत्नों से शोभायमान तथा सोलह हजार विद्याधरों से नमस्कृत वह प्रथम केशव (नारायण) त्रिपृष्ठ सोलह हजार राज-कन्याओं के साथ विभिन्न प्रकार के भोगों का उपभोग करने लगा 1 किन्तु उसकी भोग-लिप्सा यहाँ तक बढ़ गयी कि, उसमें धार्मिक प्रवृत्ति नाम मात्र को नहीं रह गयो । वह धर्म-पूजा दानादि का नाम भी नहीं लेता था । अतएव उसने भारम्भ, ममता, परिणाम आदि विषयों में लीन रहने के कारण खोटी लेश्या और रौद्र ध्यान से नकरायु बांध लिया और मृत्यु होने पर वह सातवें नरक में गया।
नरक तो घृणित होता ही है। वहाँ इसका जन्म औंधे मुहहया पीर दो घड़ी में ही पूर्ण शरीर हो गया। इसके पश्चात् त्रिपृष्ट का जीव उस स्थान से नरक की भूमि पर गिरा। उसके स्पर्श होते हो उसने चिल्लाना प्रारम्भ किया। जिस भूमि के स्पर्श से हजार बिच्छुमों के काटने जैसी पीड़ा होती है, ऐसी पृथ्वी के स्पर्श से दुःखी हुमा वह जीव १२० कोश ऊपर कछल' कर पुनः पत्थर और कांटों से भरपूर पृथ्वी पर गिरा । तदनन्तर वह दोन मारने पाये हुए नारकीयों को देखकर तथा भावी महान कष्टों की कल्पना कर ऐसा विचार करने लगा---
३१७