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चतुर्थ अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
मुकति वधपति वीर जिन, त्रिजग स्वामी सोय । गण अनन्त सो हैं विमल, नमों कमल पद दोय ॥१॥
चौपाई
दुखसौं नारक बहु दिन गये, आयु अन्तकर तहते चये । सिंह नाम गिरि वनमें आय, घरी तहां सिंहा पर्याय ॥२॥ हिसा ग्रादि कर्म जे क्रूर, कोने बहुत धर्मधर दूर । तास उदयसौं तह ते चयो, रत्नप्रभा पृथिवी फिर गयो ।।३।।
ऐहिक और अनन्त सुख, करते सदा प्रदान।
करे सिद्ध शुभ कामना, बीरनाथ भगवान ।। जो ऐहिक और पारलौकिक सुख प्रदान करने वाले हैं, जिनके पादपद्मों की सेवा इन्द्रादि देवगण किया करते हैं, उन जिनेन्द्र भगवान की मैं भक्ति-भाव से वन्दना करता हूं।
पश्चात् त्रिपुष्ट का जीव नरक की यातनायें भोन कर पुनः इसी भारत में पशु योनि में पाया। गंगा तट पर एक विकट वन था। वन चारों ओर वनसिंह, गिरि की विशाल पर्वत मालायें थी। वह नारको जीव' इसो गिरि पर सिंह के रूप में उत्पन्न
पशु गति १. नरकों के महादुःख वर्षों तक सहन करने के बाद मुझे इसी भारावर्थ में गंगा नदी के किनारे बनसिंह के पहाड़ों में शेर की योनी प्राप्त हुई। यहां भी अनेकों जीवों की हत्या करने के कारण रत्नप्रभा नाम के पहले नरक में गया। वहाँ के दुःख भोगने के बाद सिंघुकूट के पूर्व हिमगिरि पर्वत पर फिर सिंह हुआ । एक दिन शिकार करने के लिए उसके पीछे भाग रहा था कि उसी समय अजितंजय और अमितसेज नाम के दो चारण मुनि वहां आ गये। उन्होंने दोर से कहा कि पिछले जन्म में तुम शेर ही थे जीव हत्या करने के कारण तुम्हें वर्षों तक नरक के महा दुःम भोपने पड़े । यदि तुम अपना कल्याण चाहते हो तो जीव-हत्या तथा मांस भक्षण का त्याग कर दो। पोर ने कहा कि मांस के सिवाय मेरे लिये और कोई भोजन नहीं है । अमिततेज नाम के मुनिराज ने कहा-"दिगम्बर पदवी को त्याग कर तुमने श्री ऋषभदेव के बचनों आदि का अनादर किया था। इसी मिथ्यात्व के कारण जन्म-मरण, नरक आदि के अनेक दुःख सहने पड़े । अपने एक जीवन की रक्षा के लिए अनेक जीत्रों का घात कैंस उचित है ? पिछले पापों के कारण तो तुम आज गगुगति के दुख भोग रहे हो, यदि अब भी मिथ्यात्व को दूर करके सम्यग्दर्शन प्रायन न किया तो इस आवागमन के चक्कर से न निकल सकोगे।" मुनिराज के उपदेश से मगराज की आंखें खुल गई। आत्मा की वाणी को आमा को न समझे ! सिंह की यात्मा में भी ज्ञान तो था, परन्तु ज्ञानावरी कर्म के कारण वह गुण ढका हुआ था। योगीराज अजितंजय ने उसका परदा हटा दिया, सिह को पहले जन्मों की याद आ गई जिससे उसका हृदय इतना दुनी हुआ कि उसकी आंखों से टप-टप आंसू पड़ने लगे। दिकार से उमे पृणा हो गई । उसने तुरन्त ही मांस-भक्षण तथा जीव-हिसा के त्याग की प्रतिज्ञा कर ली। मुनिराज के वचनों में पूरा श्रद्धान करने से उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया । सम्यग्दर्शन से अधिक कल्याणकारी वस्तु तो सारे संसार में कोई नहीं है, हर प्रकार के संसारी सुखों तथा स्वर्ग की विभूतियां का तो कहना ही क्या है, मोक्ष तक के सुख बिना इच्छा के आप से प्राप ही प्राप्त हो जाते हैं।