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तुतीग अधिकार
मंगलाचरण
दोहा सीन लोक नहि बन सके, गुण अनन्त जिनराज । सुर हिरदै में आचर, नमो सास गुण काज ॥१॥
चौपाई
मगधदेश देशन परधान, राजग्रह तह नगर बखान । साडिल नाम विप्र तहां वस, पारासर नारी तालसं ।।२।। भटके भ्रमत बहुत दुख पाय, स्थावराय । सुत उपज्यौ प्राय । पुरववत मिथ्या संस्कार, परिवाजक दीक्षा उर धार ।।३।। कायकलेशतने परभाय, मरण अन्त सुर उपज्यो आय । कल्प महेन्द्र अम्बुनिधि सात, पाई प्रायु सुक्ख विख्यात ।।४।। एही मगधदेश में लसी, राजग्रही शुभ नगरी बसै । विश्वभूति महिपति को नाम, जैनी प्रिया तास के धाम ।।५।। सो वह देव स्वर्गते प्राय, विश्वनन्दिः सुत तिनकै थाय । अति प्रसिद्ध पौरुष परवीन, पुण्य सुलक्षण गुण में लोन ।।६।।
जिनके शुद्ध असीम गुण, तीन भुवन में व्याप्त ।
उन प्रभुका वन्दन करूं, हों गुण मुझको प्राप्त ।। जिनके अनन्त गुण किसी प्रकार की बाधा के बिना समग्र संसार में विचरण कर रहे हैं, इन्द्रादि देवगण भी जिनकी पाराधना करते हैं, उन वीतराग प्रभुको, मैं गुणोंकी प्राप्ति के लिये बन्दना करता है।
मगध देश में राजगह नामका एक विख्यात नगर है। उस नगर में शांडिलि नामक एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पिपनी का नाम पारासिरि था। गर्भ से उसी मरिची के जीव को उत्पत्ति हुई। यहां उसका नामकरण स्थाबर हुना। वह
१. राजगिरि नाम की नगरी में शांडिलो नामक ब्राह्मण की स्थी पारासिरी के स्थावर नाम का पुत्र हुआ। २. माहेन्द्र नाम के चौथे स्वर्ग में देव हुआ।
श्रावक तया जैन मुनि
३. जिस प्रकार माठ की संगति से लोहा भी तिर जाता है, उसी प्रकार धर्मात्मानों की संगति से पापी तक का भी कल्याण हो जाता है। अब की बार माहेन्द्र स्वर्ग में धर्मास्मा लोगों की संगति मिली जिसके कारण मैं विषय-भोगों में न फंप कर मन्द-वापावी रहा । रवर्ग के सुवा को पुण्य तथा नरक, निगोद को पाप कमों का फल जान कर, माला मुरझाने पर भी मैं दुखी न हुआ, तो इसका फन यह हुआ कि स्वर्ग की आयू समान होने पर मैं मगध देश की राजधानी राजगृह में विश्वभूति नाम के राजा की जनी नाम की रानी से विश्वनन्दी नाम का बड़ा पराक्रमी राजकुमार हुआ। राजा के विशाखभूति नाम का एक छोटा भाई था, जिसकी लक्ष्मण नाम की रानी और विशाखनन्दी नाम का एव था। यह सारा परिवार जैनी था। विश्वनन्दो बड़ा बलवान और धर्मात्मा था, वह धावक व्रत बड़ी श्रद्धा से पालता था।
संसार को असार जान कर अपने आत्मिक कल्याण के लिये विश्वभूति ने संसार त्यागने की ठान ली। उसके राज्य का अधिकारी तो उसका पुत्र विश्वनन्दी ही था, पन्तु उसको बच्चा जान कर अपना राज छोटे भाई व विश्वभूति के सुपुर्द करके अपने पुत्र विश्वनन्दी को बराज बना दिया और स्वयं श्रीधर नाम के मुनि से जिन दीक्षा लेकर जन साधु हो गया।
यवराज विश्वनन्दी के बगीचे पर विशास्त्रमन्दी ने अपना अधिकार जमा लिया। समझाने से न माना और लड़ने को तैयार हो गया तो विश्वनन्दी विशाखनन्दी पर झपटा । भय से भागकर एक पेड़ पर चढ़ गया। विश्वनन्दी ने एक ही झटके में उस वक्ष को जड़ से उखाड दिया। विशाखनन्दी भाग कर पत्थर के एक खम्भे पर चढ़ गया, परन्तु विश्वनन्दि ने अपनी कलाई की एक ही चोट से उस पल के खम्भे को भी तोड़ दिया । विशाखनन्दी अगनी जान बचाने के लिय बुरी तरह भागा। उसकी ऐसी भयभीत दशा को देखकर विश्वनन्दी को वैराग्य आ गया और श्री संभा नाम के मूनि से दीक्षा लेकर जन-मुनि हो गया। इस घटना से विशाखभूलि को भी बहुत पश्चात्ताप हुआ वि पत्र के मोह में फंस कर साध स्वभाव विश्वनन्दीका गीचा विशाखनन्दी को दे दिया, सच तो यह है कि यह समस्त राज्य ही उनका है। जब विश्वनन्दी ने ही भगै जवानी में संसार त्याग दिया तो मुझ वृन्द्र को राज्य करना कैसे उचित है ? यह भी जैन साधु हो गवा ।
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