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कर परपंन बुलायौ राइ, विश्वनंदि पायौ तिहि ठाइ । अहो भद्र तुम ऐसी लहो, राज्यभार यह सब अब गहो ॥२६॥ हम आर रिपु आयो राही, दई उजार देश पूर मही । जाउं तिन्हें जीतनको पाज, परजा सुख प्रापति के काज ॥२७॥ तब बाल्यौ सौ राजकुमार, तुम निष्ठी गुरु अधिकार हपको जानकअदिल जीत करी भसमन्त ॥२६॥ विश्वनदि जानै नहि भेद, कुटिलरूप तिन कीनो खेद । बहु परकार प्रार्थना करी, लै आदेश चलो तिहि धरी ॥२४। सेना जुत तिन दियो पयान, जीतो जाय शत्रुको थान । इहि अबसर ता बनहि मझार, गयौ विशाखानंदि गंवार ॥३०॥ मोहित भयो तहां सो जाय, कयौं उपद्रव अति दुखदाय । यह विरतंत देख वनपाल, जानौ सफल पापको जाल ॥३।। देखो मोह ध्रिगत संसार, प्रशुभ अर्थकर्ता अविचार । विश्वनन्दि राजा बर वीर, हिरदों हैं साहस धीर ॥३३॥ हम देखत रिपू ऊपर वाहि, याकै पिता पठायो ताहि । इन कौटिलता कर बन लियो, गज सनेह नाश सोकियो ।।३।। मोह जगत में निन्द्य अपार, करौ तास इन अप करतार । मोह नरक दुःख व्योपर, यह भव परभव दुरगति धरै ।।३४॥ तिहि अवसर अरिजीत महान, प्रायो विश्वनन्दि गुणभान । सुनके सटक्यो सब न्यौहार, गयों रोष घर वनहि मंझार ॥३५।। ताके भय सौं नन्दि विशाख, अति आतुर डरपो सुख प्राख । वृक्ष कपित्थ मूल सो गह्यो, मध्य, भाग ताके छिप रह्यो ।।३।। विश्वनन्दि अद्भुत बल होइ, लियो उखाड़ वृक्ष तिन सोइ । शत्रु देख के अति भय दियो, हनवै को तिन उद्यम कियो ।।३।। नहं त कड़ि भाग्यौ पुनि सोइ, शिला स्तम्भ तर छिप्यो सोई । पीछौ गह घायौ सुकुमार, कह जैहे अन्यायि गमार ॥३८॥ मुष्टिप्रहार बली जब कयों, शिलास्तम्भ ता छिन गिर पयौं । ताके भये तुरत शत खंड, सबल पुरुषको दीने दण्ड ।।३।। तह ते भन्यो विशाखानन्द, देख न रक्ष पाय निमन्द । करुणा कर छोड्यो तब सोइ, मन में सुमरि पंचपद लोइ ।।४।। देखो भोग ध्रिगत संसार, कातर जोब कदर्थ अपार । दण्ड दियौ मैं बांधव काज, बंधादिक कोनी अघ साज ॥४॥
किसी सखद रतुके समय राजा विश्वनन्दी अपनी रानियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था। इतने में ही विशाखनन्द वहां पहुंच गया। उसने लौटकर अपने पितासे विश्वनन्दीके बगीचेकी बात कह सुनाई 1 उसने यह भी कहा कि यदि विश्वनन्दी का बगीचा मुझे नहीं मिला, तो मैं अनायास ही घररो निकल जाऊंगा। पुत्र की ऐसी बात सुनकर राजा ने कहा--बेटा, धैर्य रख, मैं शीघ्र ही उस बगीचे को तुझे दिलवाने का प्रयत्न करूंगा । एक दिन उस राजा ने विश्वनन्दी को बुलाकर कहा-यह राज्य-भार मैं तुम्हें सौंपता हुँ । आजसे मैं अन्य राजाओं द्वारा किये उपद्रवों को शान्त करने के प्रयत्न में लगूगा। इसके लिए मुझ उन पर आक्रमण करना पड़ेगा। किन्तु विश्वनन्दी कुमारने उत्तर दिया--पूज्य, तुम शान्तिपूर्वक यहां निवास करो मैं स्वयं उन उपद्रवियों को परास्त करूंगा। इस प्रकार राजा को प्राज्ञा मानकर विश्वनन्दी कुमार अपनी परी सेना लेकर चल पड़ा। इधर राजाने अपने पुत्र को विश्वनन्दीका बगीचा सौप दिया। प्राचार्य का कहना है कि, ऐसे मोह को धिक्कार है; जिसको लिए मनुष्य को प्रथम से अशुभ कार्य करने पड़ते हैं। पर जब बगीचे के रक्षक द्वारा भेजे गये दूत से यह समाचार विश्वगन्दीको मिला तो उसे बड़ा दुःख हुया । उसने सोचा-पाश्चर्य है, मेरे चात्रा ने मुझे दूसरी ओर भेजकर मेरे प्रति विश्वासघात किया है । चाचा का यह कार्य प्रेम और सद्भाव में बाधा पहुंचाने वाला है।
___ वस्तुतः वह कौन-सा बुरा कार्य है, जिसे मोही पुरुष नहीं करते। इस प्रकार अपने चाचाके प्रति विश्वनन्दी की दुर्भावना बढ़ती ही गयी । वह विशाखनन्द को मारने के लिए प्रस्तुत हो गया और क्रोध से तमतमाता हा अपने बगीचे की पोर आया। जब वह समाचार विशाख नन्दी को मिला तो वह अत्यन्त भयभीत होकर वृक्षोंकी आड़ में छिप गया। किन्तु वहां भी उसके प्राण संकट में पड़े। विश्वनन्दी एक वृक्षको उखाड़कर उसे मारनेके लिए दौड़ा। पश्चात बह विशाखनन्दी एक बड़े पत्थरके खम्भेको माड़ में छिपा । प्राचार्यगण कहते हैं कि, क्या अन्याय करने वाले कभी विजयी हो सकते हैं। उस बलवान विश्वनन्दीने उस स्तम्भको मुष्टिकाधात से चूर्ण-विचूर्ण कर दिया।
पर थोड़ी देर बाद विश्वनन्दीने जब पराजित विशाखनन्दीको दीनकी भांति देखा, तब उसके मन में दयाका भाव उदय हो आया। उसने सोचा धिक्कार है, इस जीवनको, जिसमें अपने भोगोंके लिए दीन भाईकी भी हत्या करने के लिए मनुष्य
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