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दोहा इत्यादिक शांभा सहित, देशमध्य राजत । पुरी अयोध्या रम्य अति, नीतिवत तत संत ।।२०।
चौपाई प्रादिनाथ जिन उपज तहाँ, देवन रची पुरी शुभ जहां । नव द्वादश योजन विस्तार, वरनत कौन लहे बुध पार ।।५।। तुग कोट गोपुर कर सार, दीर्घ खातिका गिरदाकार। मन्दिर पाति सधन शांभंत, सुर सादिक नहं प्रीति करत । ५२।। हेमतनं चैत्यालय सही, रतन भई प्रतिमा तह लही। दानीजन मार्दव परवीन, धरमशील शुभ प्राशय लोन ॥५३।। प्रार्जवादि गुण मण्डित सोई, रूप कला छवि भषित जोइ। धरमवंत उत्तम प्राचार. सुखी पुरुप जिन भक्ती सार ॥५४॥ पाप रहित अरु महापुनीत गति धनवान परस्पर प्रीत । बस तुग मन्दिर में सोइ, मानों सुर विमान यह होइ ॥५५।। तिनकै तिय गुण कांति अपार, सुरदेवो सम शोभा सार । इन्छे अमर लेन अवतार, शिव प्रापति कारण मूविचार ॥१६॥ भूप तहां लक्ष्मी को थाम, भरत चक्रपान गुण अभिराम । आदि थेष्ठ धरता जग ज्येष्ठ, भरतक्षेत्र अधिपत परमेष्ट ।।१७। अकंपन नाम ग्रादि भूपाल, नमि समुख्य खगपति सुकुमाल । पार्वता प्रताप सौं देव, नमै चरण अम्बुजकर मेव ।।५८11 छहों खण्ड स्वामी गुणलीन, चरम अंग जिन धर्म प्रवीन । नौ निधि चौदह रत्न महान, बनिता आदि शोल सुबयान ।।५।। तीन ज्ञान शुभ कला विवेक, विद्यादिक गुण सहित अनेक । रूप आदि बल संपत्ति धनी, वरण सकं को बुध तिहि तनो ॥६॥ पुण्यवती देवी तसु रानि, पुन्या दासी सुख की वानि । पुण्य सहित पर हिये विचार, पति याज्ञा पातवन आचार ॥१॥ पुरुरवा सूर तह तै गयौ, पुत्र प्राय ताके उर भयो । नाम 'मरीच कुंवर तस जोड, रूप आदि गुण मंडित सोइ ॥६॥
प्रतः इनकी हत्याकर पाप के भागी मत बनो । अपनी प्यारी पत्नीको बातें सुनकर उस भीलको ज्ञान हो पाया। वह प्रसन्न चित हो मुनो समोप गया और बड़ी भक्ति के साथ उनके चरणों में अपना मस्तक झुकाया।
धर्मात्मा मुनिश्वर ने भी उसे धर्मोपदेश देते हुए कहा है चन्द्र ! श्रेष्ठ धर्मको प्रकट करने वाले मेरे वचनों को श्रवण कर, जिस धर्मके पालन से त्रैलोक्यकी लक्ष्मी अनायास प्राप्त होती है।
चक्रवर्ती तथा इन्द्रादि पदों की प्राप्ति भी उसी धर्म के प्रभाव से हरा करती है। उस धर्मका प्रभाव ऐसा है कि मनोवांछित सारी सम्पदाय मीर लोरिक सुख प्रदान करने वाले कुटुम्बकी प्राप्ति बड़ी सफलता से होती है।
वह धर्म मद्य-मधु मांसके त्याग करने से, पंच उदुम्बरों के ग्रहण न करने से तथा सम्यक्त्व के सहित हिसादि पंच अणु व्रतोंके पालन करने से, प्राप्त होता है।
तीन गुणवत चार शिक्षा व्रत अर्थात १२ अतरूप एक देश गृहस्थों के लिए है । इसके समुचित पालने से स्वर्गादिक सुखा की उपलब्धि हुआ करती है।
इस प्रकार मुनिवर के अमुल्य धर्मोपदेश को सुनकर वह भीलोंका स्वामी मद्य-मांसादिका परित्याग कर उनके चरणों में नत हुआ यथा धर्म-प्राप्तिको प्राशासे उसमे उसी समय बारह ब्रतों को धारण कर लिया । आचार्य महाराज का कथन है कि, इस धर्मको प्राप्ति से शास्राभ्यास, विद्वानों की संगति, निरोगता, सम्पन्नता, ये समस्त वैभव प्राप्त होते हैं। पश्चान उस भोलने मुनि -...- .--.- - - ----
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१.-चक्रवर्ती पुत्र स्वर्ग के भोग भोगने के बाद मैं अयोध्या नगरी में श्री ऋषभदेव के पत्र प्रथम चक्रवर्ती भरत के मरीचि नाम का पुत्र हआ। समार को दुखों की खान जान कर जब श्री ऋषभदेव जी ने जिन दीक्षा ली, नो कमछ महाकच्छ आधि४ हजार राजे भी जन मायदीक्षा लेकर जैन साघु हो गये थे, तो मरीचि भी उनके साथ जैन साधू हो गया था।
एक दिन अधिक गरमी पड़ रही थी, भूमि अंगारे के समान तप रही थी, शगेर को झुलसाने वाली गरम लुब चल रही थीं। सूरज की तपत से शरीर पसीने में तर हो रहा था। मरीचि उस समय प्यास की परीषह की सहन न कर सका। इगलिए दिगम्बर पद को त्याग कर उसने वृक्षों की छाल पहन ली, लम्बी जटा रस ली। कंद-मूल फल खाने लगा और यह विचार करके कि जैसे थो ऋपभदेव के हजारों शिप्य है, उसने कपिल प्रादि अपने भी बहुत से शिष्य बनाकर सांख्य मत का प्रचार करना आराम कर दिया । संसारी पदार्थों को अधिक मोह-ममता त्यागने के कारण मृत्यु के बाद वह ब्रह्म नाम के पांचवें स्वर्ग में देव हुआ।