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दोहा
संसारी दुःख तपत अति, या जिय आदि अनन्त । पूर्ण सरोवर जैन मत, तामें हवा प्रशन्त ॥३०॥ शास्त्राभ्यासी शीलमय, कुलगरिष्ठ गुण खान । जिनमत के परभाव ते, निर्धन हूं धनवान ।।३।। परमानंद लहे सदा, उपजे हित सन्तोष । अति दुर्लभ जिनधर्म यह, पायो सुर शिव पोष ।। ३२।। पंथ माहि सूनि परसके, नमस्कार कर तेह 1 पुण्यवत वह भील तब, गयो हरषि निज गेह ॥३३।। मुनि भाषित प्रत पाल ही, रहै सुक्ख सौ एव । मरण अन्त सु समाधि लहि, प्रापत भयो सुदेव' ।।३४।।
चौपाई प्रथम स्वर्ग सौधर्म महान, ऋद्धिवन्त बहु सुक्ख प्रधान । भिल्ल देव तहं धर्म प्रभाव, उपजौ सागर एक जु प्राव ॥३॥ संपुट शिला गर्भ सौ लयी, अन्त मुहरत जीवन भयौ। बिमान आदि लक्ष्मी बहु देंख, अचरज कर सपन सो लेख |॥३६॥ ततक्षण अवधि ज्ञान पहिचान, संपूरण पूरव भवजान | व्रत आदिक फल जान्यो सबं, दृढ़ मन धर्म धरयो सुरतवं ।।३७|| पीछे सब परिवार समेत, गये जिनालय बन्दन हेत। अप्ट द्रव्य जल प्रादिक लेइ, जिनवर मागे प्ररथ धरेइ ।।३।। धर्म उपावन कारण जोइ, आवै निजवाहन चड़िसोई । मेरु प्रादि नन्दीश्वर द्वीप गीत नृत्य वादित्र समीप ||३६॥ जिनवर केवल ज्ञान महान, गणेशादि माहात्म। सुजान । आव जहां भक्ति मन धरै, शिर नवाइ कर वन्दन कर ॥४०।। सुने धर्म तहां दुविध प्रबीन, तत्व अर्थ गभित गुणलीन । जहां उपाजि बहु पुण्य सुभेव, जाय आपने मन्दिर देव ।।४।। इहि विधि विविध पुण्यको कर, शुभ चेष्टा हिरदै सख धरै। देविन संग क्रीड़ा विस्तर, गीत सुन नर्तन मन हर ॥४२॥ शृमारादि सरुप विशाल, सुन्दर दिव्य जोपिता जाल । तिनको शोभा अगम अपार, कहत न को बुध पावे पार ||४३।।
दोहा
पूर्व उपाजित पुण्य सब, भगते भोग अमंग । सात हाय ऊँचौ सुवपु, सात धातु नहि अंग ॥४४॥ तीन ज्ञान वसु ऋद्धि कर, भूषित दिव्य सुदेह 1 सुख सागरको केलि में, तिष्ठ सुर गुण गेह ॥४५॥
चौपाई भरतक्षेत्र वह प्रारज खण्ड, तामधि कौशल देश अखण्ड । उपज भव्य आज परिणाम, मोख लहैं कोई ग्रेवक धाम ॥४६॥ कोई स्वर्ग वसे तजि पाप, भोगभूमि शुभ दान प्रताप । कोई पूर्व विदेहै जाइ, पावं नृप पद सो पुन आद ॥४॥ कोइ मुनिपद केबलि कोइ, धर्म आदि उपदेशक सोई। विहर जगत पूज्य सविचार, चार संघ भूषित अविकार ॥४८।। पुर पत्तन अरू ग्राम अपार, शोभित तुंग जिनालय सार । कानन सफल तहां मुनि रहैं, ध्यानारून प्रातमा गहें ॥४६।।
एक बार इस वनमें किसी दिन जिनदेवकी वन्दना के लिये सागर सेन मूनिका आगमन हया । पुरुरवाने मुनिश्वर को दूरसे देखकर उन्हें हरिण समझा और मारने की इच्छा की।
किन्तु उसके पुण्योदयमे उस भीलकी पत्नी ने मुनिश्वर को मारने से मना किया और कहा-स्वामिन ! ये संसार के कल्याण के उद्देश्य से बन-देवता भ्रमण कर रहे हैं।
मुनिराज ने उपदेश दिया कि संसार में मनुष्य-जन्म पाना बड़ा दूर्लभ है। इसे पाकर भी मिट्टी में मिल जाने वाले शारीर का दास बना रहना उचित नहीं । भील बोला- "महाराज ! मैं किसी का दास नहीं है भीलों का सरदार है।" उसकी यह बात सुन कर साधु, हॅस दिये और बोले-'अरे भोले जीव ! तू सरदार कहाँ है ? दो अंगुल की जीभ ने तुझे अपना दास बना रखा है, जिसके स्वाद के लिये तू दूसरे जीवों के प्राण लेता फिरता है।" भील चुप था। भीननी ने कहा- "यदि खायें नहीं नहीं तो भूख से मर जायें ?" साधु बोले-"भूख में किसी को न मरना चाहिये, किन्तु ध्यान यह रखना चाहिये कि अपनी भूख प्यास की ज्वाला मिटाने के लिये दूसरे जीवों को कष्ट न हो। अन्न, जल और फल स्वाकर भी मानव जीवित रह सकता है। पशु-हत्या में हिसा अधिक हैं। मांस मदिरा और मधु जीवों का पिण्ड है। इनके भक्षण से बड़ा पाप लगता है आज ही इनका त्याग कर दो" ।
१. भील-भीलनी ने स्थूल रूप से अहिम। अत' ग्रहण करके उनका पालन किया, जिसके पुण्य फल से भील सौषम नाम के पहले स्वर्ग में देव हुआ। उसने दूसरों को सुखी बनाया, इसलिये रवर्ग के सुख मिले ।