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प्रति उत्तंग जिन मन्दिर पात, सोहै तास ध्वजा फहरात । धरमी जन निवास लिहि थाना, धन कन पूरय प्रधान ।।१६।। नगरी बाहर वन शोभन्त, अति मनोश मध नाम पहा- ! तिल दागन पहला, दलिन पनि सतहो ।।१७।। जहां बस भीलनको सार्थ, पुरूरवा है तिनको नाथ। नाकी प्रिया काखिका नाम, शील शिरोमणि जिसे धाम ।।१।। एक दिना कानन में जाय, मृग मार्यौ निर्दय दुखदाय । निहिं अवसरता वनहि मंझार, या जिन विहन्त भकिनार ||१६३ सारथवाह संग अभिराम, सागरसेन मुनीश्वर नाम । ईपिय साधत परबान, दरसन, ज्ञान चरण गन लीन ।।२०।। देखि मंजमी भील घेरियो, लुटनको तब उद्यम कियो। वनदेवन संशेष तवे, अति निषिध्य काज है मवै ।।२।। तम करतव्य जोग नहि नाथ, अघकारण दुर्गनिको साथ । देव व मन सुन उपशम सही, काललब्धित मदता नही ।।२२।। पुरुरवा तब भील सु माम, देखि मुनी तहे कियो प्रणाम । धर्मवृद्धि दानों मुनि बानि, कृपावन्त भवि पहिवानि ।।२३॥ ग्रहो भद्र मो बच सुन सार, धर्म जान त्रिभुवन भवतार | धर्मप्रभाव लक्षिमी होई, इन्द्र नत्र तीरथ पर सोइ ।।२।। भोगोपभोग वस्तु शुभ जान, मनोगात्र सुख सपत बान । ऊंच गोत्र वह पूत्र पहीत, धर्मगवान शत्र कर प्रीत ।।२।। पंच उदम्बर नीन भवार, इनते रहित होइ भवपार। सम्यक सहित अणुदत पाँच, गुणवान लोन काहे जिन मांच ।।२६।। चउ शिक्षाबत भाव समेत, साधं गृहपति रवर्ग सहेत । द्वादश व्रत ये श्रावक जान, जतिबर धर्म दुनी पहिचान ।।२।। यह प्रकार मनिवच सुन सर्व, छोड़ा वध धादिक सर्व । नामक मुनि चरणाम्बुजा दोय, श्रावक धर्म धरै दृढ होय ॥२८|| सम्यग्दष्टि गह्या सुखकार, भील अधिक शुभचित्त विचार । बारह व्रत सुन भेदाभेद, श्रद्धावान भयो तजि सद ।।२६।।
इस देश में क्षत्रिय, वैश्य, शूद्ररूप तीन वर्गम यो प्रजा सभी सखो दिखलायी देती है।
बह सदा धर्म में तत्पर और अत्यन्त भाग्यशाली है। जो असंख्य तीर्थकरों, गणधरों, चलतियों और वागदेवों की जन्म-भूमि है ओर देवी द्वारा सर्वदासे पूज्य है।
जहाँ ५०० धनुप अर्थात् दो हजार हाथ ऊंचा शरीर और एक करोड़ पूर्वकी मनुष्यों की परमायु है।
वहां सदा चतुर्थ काल का बर्ताव रहता है । जिस स्थान से उत्पन्न ह महापुरुष तपश्चरण द्वारा स्वर्ग ग्रहमिन्द्रपना एवं मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति करते हैं, अर्थात् वहां पर सभी कार्य सिद्ध किये जा सकते है।
उसी देश में पुण्डरीकिनी नामकी बारह योजन लम्बी और नव योजन चौड़ी एक नगरी है। वह एक हजार बड़े दरवाजों से युक्त नथा पांचसौ छोटे दरबाजों स बष्टित है। जहां महान पुण्यवान ही उत्पन्न होते हैं । उस नगरी में जिन मंदिरोंकी ध्वजायें ऐसी शोभित हैं, मानों ने स्वर्गवासियों को ग्राद्वानन कर रही हो।
नगर के बाहर मथुवा नामका पाक बड़ा सा बन है, जो देखने में अत्यन्त रमणीक है। वहा ध्यान में लान हुए मुनिराज विराजमान हैं इसलिए इस वनकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता।
किसी समय उस वन में भीलोंका एक राजा रहता था, जिसका नाम पुरुरवा था। वह अत्यल भद्र परिणामी था। उसकी कालिका नामकी स्त्री थी। वह अत्यन्त बाल्याणकारिणी थी। - - -
१-मांसाहारी भील पुरुरवा एक दिन महावीर स्वारी एकान में विधान कर रहे थे, कि यह संसार क्या है? मैं कौन था? या आ ? अब गया हूँ? अनादि बाल से कितनी बार जन्म-मरण हुआ: उन्होंने अबविज्ञान ग विवान कि एक समय मेरा जीत्र जम्बद्रीप में विदेश क्षेत्र में पुरानी देश में पुण्डरीकिसी नाम के नगर के निकट मधुक नाम थे बन में पुरुरवा नाम का मांशाहारी भोला का सरदार था, बालिका पल्ली थी, पशुआ का शिकार करके मांस खाता था, एक दिन मारता मूलकार थी सागराजा के पनि जस जंगल में पा लिने । द ने सनकी जमीचमा बल हिरण का भ्रम हुआ, 'झट पीर नगान उटा उनकी ओर माना लगाया ही शाम. पालिया ने कहा कि यह हिरन ही जगदेवा मार हाने है। दोनों मुनिराज के पास गये ।
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