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की ऊंचाई थी पर में सर्व का चिह्न था। जब के सोलह वर्ष के हुए तब हाथी पर सवार होकर गंगा के किनारे सैर कर रहे थे । उस समय उन्होंने एक तपस्वी को अग्नि जलाकर तपस्या करते हुए देखा। भगवान पार्श्वनाथ को अवधि ज्ञान से ज्ञात हुआ कि एक जलती हुई लकड़ी के भीतर सर्प सर्पिणी भी जल रहे हैं। उन्होंने तापसी से यह बात कहो तापसी ने क्रोध में आकर जय कुल्हाड़ी से कड़ी फाड़ी तो सचमुच मरणोन्मुख नाय नायनी उसमें से निकले भगवान पार्श्वनाथ ने उनको जमोकार मंत्र सुनाया। नाग नागती ने शान्ति से णमोकार मंत्र मुनते हुए प्राण दे दिये और दोनों पर कर भवनवासी देव देवी धरणीन्द्र पद्माबली हुए।
राजकुमार पार्श्वनाथ ने अपना विवाह नहीं किया और यौवन धवस्था में ही विश्षत होकर मुनि दीक्षा लेते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान हो गया । चार मास पीछे एक दिन जब वे ध्यान में बैठे थे तब कमठ का जीव असुरदेव उधर होकर आकाश में आ रहा था। भगवान पार्श्वनाथ को देखकर उसने फिर पूर्वभव का पैर विचार कर भगवान के ऊपर बहुत उपद्रव किया। उस समय घरणेन्द्र पद्मावती ने आकर उस असुर देव को भगा कर उपसर्ग दूर किया। उसी समय भगवान को केवल ज्ञान गणधर थे सब तरह के १६ हजार यक्ष सर्प का चिह्न था। अन्त में
हुआ । तब समवशरण द्वारा समस्त देशों में धर्म प्रचार करते रहे। मुनि और सुलोचना [आादि १६ हजार पकायें उनके संघ में थी आपने सम्मेद शिखर से मुक्ति प्राप्त की।
उनके स्वयंभू आदि १० परन्द्र
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