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दोहा
इने आदि गुण सारास्त्र, गुण उत्तम बुध गेव ॥ ६३||
वक्ता के लक्षण
सत्य वचन में दक्ष महान धर्मवन्त धर्म वेदता परम प्रवीन, किया चरण में ज्ञानहीन जे धर्म रहीन, तिनको बोधं
व्रतवन्त
यो
परम
चोपाई
बखान अरु चार घरे पर मान नाहीं शिथिल प्रातमा मान ||६४ || हलोन सुधिर पात्मा परम सुजान, परमवन्त जे पुरुष महान् ॥६५॥ प्रवीन । ऐसे मुनि जिन वचन गहीर, नमीं शुद्ध श्रातमा सुधीर || ६६ ||
दोहा
शास्त्र त करतार के लक्षण इहि विधि जान वरणों गुणज्ञाता वदर गुणज्ञाता सवर परमवन्य शुभ ज्ञात ॥६७॥ श्रोता के गुण
चौपाई
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भक्ति सदा आवरं निरग्रन्थी गुरु सेवा करें। चतुर प्रयोग मूरि उक्ति यति पढा करें सत्य वचन मन समकित परे। यह विधि गुण अव श्रोता चौदह परकार, कहाँ सर्व शुभ अशुभ विचार काहू सूप समान स्वभाव, अवगुण फटके गुण रहि जाब शुभ श्रोता ये तीनों भेद, अब एकादश अशुभ सुनेय चलनी सम श्रोता है जय, सार वस्तु को त्याग करेय श्रोता कोई विलाव सुभाय, घृत पय दधिभाजन ढड़काव । मशक समान जु श्रोता होइ, भली बुरी को भेदन कोइ उलूकसम जे श्रोता कहै, दिवस अन्ध रजनी दृग लहै । फूटे घटवत श्रोता एक, रहै न तामें नीर विवेक । पशु समान जे श्रोता होइ, मूरख महा ताहि प्रबलोइ |||७७ || बगुल ध्यान की पटतर ते बुरी बात जिय घारे जे श्रोता ने पाषाण समान, जड़ता घरे मिदं नहि ज्ञान ॥ ७८ ॥ ऐ श्रोता व बारसु कहे, निज निज भाव फलाफल है। सकल शास्त्र को वेदक होद, शुभ प्राय जानी भनि लोई ॥७६॥
शुक्र समान जे श्रौता कहै, पढ़त पढावत सो सुध लहै ॥ ७१ ॥ माटीवत जो श्रोता जोड़ सुनतहि कोमल, सदा कठार ॥ ७२ ॥ महिया व पुन श्रोता कोइ निर्मल नीर चावत सोई ॥७३॥ फिर पीछे भुवि चाढत फिरे, त्यों गुण ग्रन्थ हृदय वा धरं ।।७४ || धोता मूढ़ जलूका जास, पब तज ग रक्त श्री मास ॥७५॥ ग्रन्थ सुनत सो अधिकाहि, सहज नींद ना दोसं ताहि ॥ ७६ ॥
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कसोटी जेम, सार पसार विचारत एम ॥ ६६ ॥ अनन्त जुत होई, राग व्यार्थ नहि कोई ॥ ६६|| प्रथम रावत हैं बड़भाग, पस पी अवगुष्प जल त्याग ॥७०॥
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सवैया तेईसा ज्यों कलधौत मगायधनी, यह तोल सुनार के हाथ के दोनों देखत हो गढ़वायो तिन्हें नहि चित्त भने इनि चौकस कीनो ।। मौन लिये वह दुष्ट दिखें, श्ररु कायसौ नैक उसास न लीनो । त्यो यह ग्रन्थ सुनं सुख पोख, लहे सूर मोख गिरा भ्रम भीनों ॥८०॥ श्रोता का लक्षण सम्यक्त्व निरूपण
चौपाई
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जिन सम्ययत्वको परवीन, जीव तत्व यादिक गुण सोन तत्व घरच मुख्य विराग, मन में भोगणाम बड़भाग ॥१॥ are as foo पूजा करें, शील विरत आदिक हिय धरै ता फल बन्ध मोक्ष सुर होई उद्यम करो भाविकजन सोई ||८२|| धर्म जीवन में करें सर्व संग त्यानी गुण परं। इहि विधि से वरतं शुभ ध्यान धर्मध्यान हिरदे परि ज्ञान ||२३|| श्रेस्ठ पुरुष महन्त प्रवीन महा रिद्धिपारी सुखली तिनको कहे पुराण महान, भवि अन्तर संपत्ति गुण खान ||८४||
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इस प्रकार अपने इष्टदेवों के चरण कमलों में नत होकर तथा वक्यादिकों के स्वरूप का वर्णन कर जिनेन्द्रदेव के मुख से उत्पन्न धर्म-प्रवर्तक अन्तिम तीर्थकर भगवान श्री महावीर स्वामीको निर्मल कथा पारम्भ करता हूं, जो कर्मरूपी शत्रुओं को शान्त करने में सहायक होगी । अतएव भव्यजनों को चाहिए कि वे सावधानी पूर्वक इस अमृतरूपी कथाको श्रवण करें ।
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