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द्वितीय अधिकार मंगलाचरण
दोहा वीर अघ्रि-अप नीर सम, कर्ममल्ल हन बोर। उपसरगादिपरीपहा. जीतं नमो सुधीर ।।१।।
कथा-वर्णन
चौपाई जम्बुवृक्ष अलंकृत जान, राज जम्बुद्वीप महान । सागर द्वीप असंख्य मंझार, दीमै व्योम नखत उनहार ।।२।। जोजन महालाख इक जान, मध्य सुदरशन मेरू प्रधान । तहल्याई जिनवरको देव, करै न्हवन बहुविधिसौ सेव ॥३॥ ताकी पूर्व दिशा राजेह, उत्तम रम्य जु पर्व विदेह । शोभा तास वरन को कहै, ठौर ठौर जिन मन्दिर लहै ।।४॥ यही क्षेत्र भवि तप बल सार, तहां लहैं मुनिवर अवतार | कर्म क्षय कर रखें शिवपति, साथ नाम शुभ ऊरधगती ||५|| ना मधि सुन्दर गीता जान, उत्तर तट भविजन पहिचान । पुप्कलावनी देश यखान, सो है लक्ष्मी को सोपान ।।६।। तीर्थकर मन्दिर प्रति घना, तुगकेतु जिमि दामिन गना। नगर ग्राम वन आय अनेक, मानों सर्व सुरालय एक ||७|| गणेशादि बिहरै जु महन्त, तुग्यि संघ भुषित अरहन्त । वरतावें जहैं धर्म प्रभाव पाषंडी लिंगी नहि नाव ॥८॥ दया धर्म अरहंत मुख होइ, धावक जसी दुविध अवलोई। प अंग पूरच गुण झान, रहित कुजान कुशास्त्र अयान ||६|| प्रजा वर्णत्रय मण्डित सार, ब्राह्मण वर्ण न होई लगार। सुख सुधर्म में सब परवीन, वहुत शास्त्रभ्यासो गुण लीन ॥१०॥ उपजे तहें तीर्थकर राय, चक्रो अधचक्रो बलभाय। गिनती नहि तिनकी सुखदाय, धनुष पांत्र से ऊँची काय ॥११॥ प्रायु कोटि पूरब की लहै, काल चतुर्थ सदा तह रहैं। महापुरुष परसादे साइ, सरग मोक्ष फल प्रापति होइ ।।१२।। ताके मध्य नाभिवत कही, नगरी पुण्डरी किणी सही । द्वादश जोजन लम्जी जान, नब जोजन चौड़ी पहिचान ॥१३॥ ताको कोट जू गिरदाकार, चौपथ सहित नगर विस्तार । दरवाजे इक सहस बखान, लघु खिड़की शत पंच प्रमान ॥१४॥ पथ पथ वीथी एक हजार, तिन सौ तीन तीन निरधार। बारह सहस जानियौ सोइ, इन्द्रपुरी सम सोभित जोइ ।।१५।।
नसंख्य द्वीप-समुद्र से घिरे हुए इसी मध्य लोक में जामुन के वृक्षों से चिन्हित जम्बू नामका एक द्वीप है।
उस जम्बुद्वीप के मध्य विस्तृत और उच्च सुमेरु नाम का पबत है। वह देवों में श्रेष्ट तीर्थकरों के सदश पर्वतों में मुख्य है। उस पर्वन की पूर्व दिशा की ओर पूर्व विदेह क्षेत्र है। वह क्षेत्र धर्मात्मानों से यथा जिनेन्द्र देवों के समोशरणोंसे सुशोभित है। वहां अनन्न मुनि तपस्या पूर्वक विरह से मुक्त हो गये हैं। इसी गुण के कारण इसका नाम 'विदेह पड़ा है।
इस क्षेत्र में स्थित सीता नदी के पर भागमें पुष्कलावती नामका एक विस्तृत देश है। वहां ऊँची-ऊँचो ध्वजारों से युक्त तीर्थकरों कं चैत्यालय सुशोभित हो रहे हैं।
इस स्थल पर चारों प्रकारके संघों से युक्त गणधरादि देव सत्य-धर्म की वृद्धि के लिए विचरण किया करते हैं । अतएव वहाँ किसी पाखण्डी, वषधारीका निवास नहीं है। वहाँ अहंत भगवान के मूल-कमल से प्रकट अहिंसा प्रधान धर्म विस्तृत है। उसे यति ।मुनि) और थावक सर्वदा धारण करते रहते हैं । अतएव उस नगर में जीवों के पीड़ा पहुंचाने वाला एक भी व्यक्ति नहीं है, अर्थात् सभी धर्म का पालन करते हैं।
जिस स्थान पर ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से भव्यजन ग्यारह अंग, चौदह श्रुत पूर्व का सदा अध्ययन और मनन करते हैं।
जिससे अज्ञान का विनाश हो। पर वे कुशास्त्रों का स्वप्न में भी अध्ययन नहीं करते।
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