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वृषसेन को आदि दे,
मोक्ष गये श्रवीर जिन मध्य सुवासठ वरसके,
चतुर
श्री विष्णु नन्दमित्र पुनि पूर्व अंग के देवता,
|| गणधर को नमस्कार ।।
ज्ञान धरतार। सप्त ऋद्धि भूपित नमीं कवि ईश्वर गणधार ||३७|| ॥ केवलीत्रय को नमस्कार ॥
अपने
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केवल तीन गौतम तथा सुधर्म मुनि जम्बूस्वामि प्रवीन ||३८|| धर्मवति मुनिराज शरण नहीं पदकमल तिनि उनके गुणका ||३२| ॥ पंच तवली को नमस्कार ।। अपराजित मिलि सोच गोवर्द्धन भद्रबाहु पुनि ये केवल पांच ॥४०॥ उपजे त्रिजग सुचन्द । श्रन्तर इक शत वर के, नमीं चरण भर विन्द ||४१ || || श्रम पूर्व पाठी आचार्यों को नमस्कार ॥
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चौपाई
विशाखप्रोष्ठि क्षत्रिय जान नाग सिद्धार्थ जयसेन प्रमान तेरासी सौ वर्ष के मांहि, उपजे तामें विकलप नाहि नक्षत्र नाम जयपाल प्रशंस, पाण्डुक ध्रुवसेन र तह कंस दो शत बीस बरस में भए, तिनिके चरण कमल हम नए विनय आदिवर श्रीदत्त जान, भरदत्त शिवदत्त दखान
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विजय बुद्धिमत गंग सुधर्म, जन्मी बंग पूर्व दया गर्म ॥४२॥ धर्म प्रकाशक दर्शन ज्ञान, चरण कमल प्रणमों जुगपान ||४३|| एकादशह मंग बेतार धर्म प्रवर्तक मुनिवर सार | सुभद्र जो जयबाहू, लोहाचार्य पमपर ताह ॥१४५॥ बंग पूर्व के धारक सोइ बन्दा कम पर दो ॥४६॥
दोहा
इकशत दश वरषके, उप अन्तरमांहि काल दोष से हीन श्रुत, इनमें रह्यो न कोई ज्ञान के नाशते मति वल पुस्तक कौन ज्येष्ठ धवल पंचमि दिना पाप्य शास्त्र रूप और भये मुनिवर बहुत, कुन्दकुन्द गुरु आदि
रहित परियह दुविधतर राग द्वेष र नाहि ॥४७॥ भुजबल पुष्पसुदन्त पर उपजे मुनिवर दो ||४ साध तनी पूजा निमित स्तुति में सोलीन ॥४६॥ धर्मवृद्धि करता नमीं श्रुति प्रापति जु अनूप ||५०|| कवि ईश्वर भूतल विषं परिग्रह कोनों बादि ||५.१
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॥ उपाध्याय परमेष्ठी को नमस्कार ||
उस दिन सब संघों ने मिलकर जिनवाणी की पूजाकी थी और बाज भी करते हैं। तत्पश्चात् कुन्द कुन्दादि अनेक आचार्य मैं गुण प्राप्ति की प्राशासे उनकी बारबार वन्दना करता हूँ।
हुए हैं।
मेरा ऐसा विश्वास है कि भगवान के मुख कमलसे प्रकट हुई विश्वपूण्या सरस्वती (वाणी ) मेरी बुद्धिको निर्मल बतलाने में समर्थ होगी।
इसी भांति सत्य एवं गुणवा देव तथा शास्त्र और गुरुमों को नमस्कार करता हुआ श्रोता-वक्ता लक्षणोंका वर्णन करता हूं, जिससे इस प्रत्यको उत्तम प्रतिष्ठा हो ।
श्रेष्ठ
वक्ता के लक्षण
जो सब परिग्रहों से मुक्त हों, अपनी पूजा तथा प्रसिद्धिके उत्सुक न हों, अनेकान्तवाद के धारक हों, सर्वमिद्धान्तों पारदर्शी हों, जीव हितकारी तथा भव्यजीवोंके हित में सदा लीन हों, सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र और तप ही जिनके भूषण हों, म बादि गुणों के सागर हो, निलोभी, निरभिमानी, गुणी एवं धर्मात्मा विशेष प्रेम रखने वाले हों, धत्यन्त बुद्धिशाली उद्यमी तथा जैन धर्म के महारभ्य प्रकाशनमें समर्थ हों, जिनका यश सर्वत्र विस्तृत हो जिन्हें सब मान देते हों, सत्यता आदि गुणोंके धारक आचार्य, उत्तम वक्ता कहे गये हैं। इन्हीके उपदेश श्रवणकर भव्य जीव धर्म और लपको धारण करते हैं - अन्य कुमागियोंके वचनों को लोग उपेक्षा करते हैं। कारण ऐसा कहा गया है कि, कुमार्गी जब धार्मिक उपदेश करता है, तो ययं वैसा पावर क्यों नहीं करता । अतएव शास्त्र के रचयिता और धर्मोपदेश देने वाले में ज्ञान और श्राचरण दोनों ही गुण पूर्ण मात्रा में होने चाहिये ।
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