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सोलह भावनाओं का चिन्तवन करके वह प्राणत स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहाँ पर २० सागर दिव्यसम्पदाओं का उपभोग किया तदन्तर मगध देश के राजग्रह नगर के शासक हरिवंशी राजा सुमित्र नाम की महारानी मीमा के गर्भ से बीसवं तीर्थकर श्री मुनि सुव्रतनाथ के रूप में जन्म लिया। भगवान मल्लिनाथ के मुक्ति समय से ५३ लाख ७० हजार वर्ष का समय बीत जाने के बाद पर श्री मुनिसुव्रतनाथ का जन्म हुआ था। शरीर का वण नोला था, ऊचाई २० धनुष थी। और आयु ३० हजार वर्ष की थी। दाहिने पैर में कछुए का चिन्ह था।
भगवान मुनिसुव्रतनाय के साढ़े सात हजार वर्ष कुमार काल में व्यतीत हुए और साढ़े सात हजार वर्ष तक राज्य किया । फिर उनको मंसार से वैराग्य हुन्ना उनके साथ एक हजार राजाओं ने भी मुनि दीक्षा ग्रहण की। कई मास तक तपश्चरण करने के पश्चात उनको केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। तब लगभग ३० हजार वर्ष तक समवशरण द्वारा विभिन्न देशों में विहार करके वे प्रचार करते रहे। इनके मल्लि आदि १८ गणधर थे वे केवल ज्ञानी अवधि ज्ञानी प्रादि सब तरह के ३० हजार मुनि
और पुष्पदन्ता आदि ५० हजार प्रायिकाएं उनके साथ थी। वरुण यक्ष बहुरूपिणो यक्षा कच्छप का चिन्ह था अन्त में सम्मेद शिखर से उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ काल में हरिषेण चक्रवर्ती हया है तथा पाठवें बलभद्र राम नारायण लक्ष्मण प्रति नारायण रावण हुआ है।
भगवान नमिनाथ वत्स देश के कोशाम्बि नगर में सिद्धार्थ नामक इक्ष्वाकुवंशी राजा राज्य करना था। एक दिन उसने महावल केवली से धर्म उपदेश सुना जिसमे उसको वैराग्य हो गगा। वह मुनि दीक्षा लेकर तपस्या करने लगा दर्शन विशुद्धि प्रादि सालह भावनाम्रो द्वारा उसने तोर्थ कर प्रकृन किया । हा के अन्त में समाधिारण किया। अपराजित नामक अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र उतन्न हुमा । वही उसने ३३ सागर को मायु व्यतीत की। तदन्तर मिथिला नगरी में इक्ष्वाकुवंशी काप्यप गोत्रीय महाराजा विजय को महारानी वपिला के उदर से २१ वें तीर्थंकर थो नमिनाथ के रूप में जन्म लिया। भगवान मुनिसुव्रतनाथ के बाद ६० लाख वर्ष तीर्थकाल बीत जाने पर भगवान नमिनाथ का जन्म हुम्रा था। उनकी प्रायु दस हजार वर्ष थी शरीर १५ धनुप ऊँचा था। वर्ण स्वर्ण के समान था चिन्ह नोल कमल का था। भगवान नमिनाथ का ढाई हजार वर्ष समय कुमार काल में और ढाई हजार वर्ष राज्य शासन में व्यतीत हुआ। एक बार पूर्व भव का स्मरण कर उन्हें वैराग्य हो गया तब मुनि दीक्षा लेकर वर्ष तक तपस्या को तदन्तर उनको केवल ज्ञान हमा। उस समय देश देशान्तरां में विहार कर धर्म प्रचार करते रहे। उनके संघ में सुप्रभार्य ग्रादि १७ गणधर २० हजार सब तरह के मुनि और मंगिनो आदि ४५ हजार प्रायिकाए थी। भ्रकुटि यक्ष चामं डो यक्षो नीलोत्पल चिन्ह था अन्त में भगवान नमिनाथ ने सम्मेद शिखर पर से मुक्ति प्राप्त की।
भगवान नेमिनाथ जम्बुद्वीपवर्ती पश्चिमविदेह क्षेत्र में सीतानदी के उत्तर तट पर सुगन्धिला देश है। उसमें सिंहपुर नगर का यशस्वी प्रतापी ओर सोभाग्यशालो राजा अपराजित शासन करता था उसको एक दिन पूर्वभव के मित्र दो विद्याधर मुनियों ने प्राकर प्रवद्ध किया कि अब तेरी आयु केवल एक मास को रह गई है कुछ प्रात्म कल्याण कर ले । अपराजित अपनी आयु निकट जान कर मुनि हो गया । मुनि होकर उसने खूब तपश्चर्या की। प्रायु के अन्त में समाधिमरण कर सलहवें स्वर्ग का इन्द्र हुआ। वहां से च्युत होकर हस्तिनापुर के राजा श्रीचन्द्र का पुत्र सुप्रतिष्ठ हुआ। राज्य करते हुए उसने एक दिन बिजली गिरती हुई देखी इससे संसार को क्षणभंगुर जानकर मुनि हो गया। मुनि अवस्था में उस ने तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। और आयु के अन्त में एक मास का सन्यास धारण कर जयन्त नामक अनुत्तर बिमान में अहमिन्द्र हुआ। वहां पर तीस सागर को प्रायू बिताकर द्वारावती के यदुवंशी राजा समुद्रविजय व रानी शिवादेबी की कोख से २२ वे तार्थकर थी नेमनाथ के रूप में उत्पन्न हना।
भगवान नेमिनाथ का शरीर नील कमल के समान नाले वर्ण का था एक हजारवर्ष को प्रायु थो । और शरीर को ऊंचाई दश धतूप थी उनके पैर में शंख का चिन्ह था । वे भगवान नमिनाथ के मुक्त होने के ४ लाख ९६ हजार वर्ष पीछे उत्पन्न हुए
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