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प्रकार वे दोनों भाई भी नित्योदय थे-उनका ऐश्वर्य निरन्तर विद्यमान रहता था और जिस प्रकार बालसर्य जगन्नेत्र-जगच्चक्ष नाम को धारण करने वाले हैं, उसी प्रकार के वे दोनों भाई भी जगन्नेत्र-जगत के लिए नेत्र के समान थे।
वे दोनों भाई कलावान थे परन्तु कभी किसी को ठगते नहीं थे, प्रताप सहित थे परन्तु किसी को दाह नहीं पहुंचाते थे, दोनों करों दोनों प्रकार के टवसों से (अायात और निर्यात करों से) रहित होने पर भी सत्कार उत्तम कार्य करने वाले अथवा उत्तम हाथों से सहित थे इस प्रकार वे अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे । रूप की अपेक्षा उन्हें कामदेव को उपमा नहीं दी जा सकती थी क्योंकि वह अशरीरता को प्राप्त हो चुका था तथा नीति की अपेक्षा परस्पर एक दूसरे को जीतने वाले गरु प्रथा उनके समान नहीं थे । भावार्थ-लोक में सुन्दरता के लिए कामदेव की उपमा दो जातो है परन्तु उन दोनों भाइयों के लिए कामदेव की उपमा सम्भव नहीं था क्योंकि वे दोनों शरीर से सहित थे मीर कामदेव शरीर से रहित था। टमी प्रकार लोक में नीतिविज्ञता के लिए गुरु-वृहस्पति पीर शुक्राचार्य को उपमा दो जाती है परन्तु उन दोनों भाइयों के लिए उनकी उपमा लाग नहीं होता था क्योंकि गुरु और शुक्र परस्पर एक दूसरे को जीतने वाले थे परन्तु वे दोनों परस्पर एक दसरे को नहीं जीत सकते थे । सर्य के द्वारा रची हुई छाया कभी घटती है तो कभी बढ़ती है परन्तु उन दोनों भाइयों के द्वारा की हई छाया बढ़ते हुए वृक्ष की छाया के समान निरन्तर बढ़ती ही रहती है ।
वे न कभी युद्ध करते ने पीरा कभी शगुपों पर ईडी करते थे फिर भी शत्रु राजा उन दोनों के साथ सदा मन्धि करने के लिए उत्सक बने रहते थे। इस तरह जिन्हें राज्य-लक्ष्मी अपने कटाक्षों का विषय बना रही है ऐसे वे दोनों भाई नवीन अवस्था को पाकर शुक्लपक्ष को अष्टमी के चन्द्रमा के समान बड़ते हो रहते थे। अब मेरे दोनों योग्य पूत्रों की अवस्था राज्य का उपभोग करने के योग्य हो गई ऐसा विचार कर किमो एक दिन इनके पिता ने भोगों में प्रोति करना छोड दिया। उसी समय इच्छा रहित राजा ने देव तुल्य दोनों भाइयों को बुलाकर उनका अभिषक किया तथा एक को राज्य देकर दमरे को युवराज बना दिया । नथा स्वयं, स्वयंप्रभ नामक जिनेन्द्र के चरणों के समोप जाकर संयम धारण कर लिया। धरणेन्द्र का ऋद्धि देखकर उसने निदान बन्ध किया। उससे दूषित होकर बालता करता रहा। वह सांसारिक सुख प्राप्त करने का इच्छक था। प्रायु के अन्त में विशुद्ध परिणामों में मरा और धरणेन्द्र अवस्था को प्राप्त हया।
भगवान कुन्थनाथ जम्बद्वीपवर्ती पूर्व विदेह क्षेत्र में वत्स नामक एक देश है उस देश के सुसीमा नगर में एक महान बलवान सिंहरथ नाम का राजा राज्य करता था । एक दिन उसने आकाश से गिरती हुई बिजली देखी इससे उसको वैराग्य हो गया। विरक्त होकर उसने साध अवस्था में १६ कारण भबनायों का चिन्तवन किया जिससे तीर्थकर प्रकृति का बंध किया। अन्त में वीर मरण करके सर्वाथ सिद्धि का देव हुआ।
वहां ३३ सागर की प्रायु बिताकर हस्तिनापुर में महाराजा शूरसेन को महारानो थी कान्ता रो उदर से १७ तीर्थकर कल्यनाथ नामक तेजस्वी पुत्र हुआ। भगवान शांतिनाथ के मोक्ष गमन से ६५ हजार वर्ष कम प्राधा पल्प समय बीत जाने पर भगवान कुन्थुनाथ का जन्म हुआ था। इनको आयु ६५ हजार वर्ष को थी । ३५ धनुप चा सुवर्ण शरीर था। बकरे का चिन्ह पैर में था।
भगवान कुन्यनाथ ने २३७५० वर्ष कुमार दिग्विजय करके निकले और छह खण्ड जीतकर भरत क्षेत्र के चक्रवर्ती सम्राट बने रहकर पूर्वभव के स्मरण रो इनको वैराग्य हुआ। १६ वर्ष तपस्या करके ग्रहन्त पद प्राप्त किया। तब समवशरण में अपनी दिव्यावनि से मुक्ति मार्ग का प्रचार किया। आपके स्वयम्भू प्रादि ३५ गणधर थे ६० हजार सब तरह के मूनि थे। भाविता आदि ६० हजार ३०० प्रायिकायें थी। गंधर्व यक्ष जयायक्षी थी। अन्त में आपने सम्मेद शिखर से मोक्ष प्राप्त किया।
भगवान पर नाथ जम्बुद्वीप में बहने बाली सीता नदी के उत्तरी तट पर कच्छ नामक एक देश है उसका शासन राजा धनपति करता था। उसने एक दिन तीर्थकर के समवशरण में उनकी दिव्य वाणी मुनी दिव्य उपदेश सुनते ही वह संसार से विरकन होकर
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