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समस्त पर्वों में उपवास करता था, यदि कदाचित् ग्रहण किये हुये व्रत की मर्यादा भंग होती थी तो उसके योग्य प्रायश्चित लेखा था, सदा महापूजा करता था, आदर में पादि करता था, धर्म-कथा सुनता था, भव्यों को धर्मोपदेश देता था, निःशंकित प्रादि गुणों का विस्तार करता था, दर्शनमोह को नष्ट करता था, सूर्य के समान अपरिमित तेज का धारक था पर चन्द्रमा के समान सुख से देखने योग्य था। यह संयमी के समान शान्त था, पिता को तरह प्रजा का पालन करता था और दोनों शोकों के हित करने वाले धार्मिक कार्यों की निरन्तर प्रवृत्ति रखता था ।
प्रज्ञप्ति, कामरूपिणि, अग्निस्तम्भिनी, उदकस्तम्भिनी, विश्वप्रवेशिनी, अप्रतिघातगामिनी, आकाशगामिनी उत्पादिनो, वशीकरण, दशमा, आवेशिनी, माननीय प्रस्थापिनी, प्रमोहनी, प्रहरणी, संक्रामण श्रावर्तनी, संग्रहणी, भजनी, विपाटनी, प्रावर्त की, प्रमोदिनी, प्रहापणी, प्रभावती, प्रलापिनी, निक्षेपणी, शर्वरी, चांडाली, मातंगी, गोरी, षडगिका, श्रीमत्कन्या, शतसंकुला, वेताली कुपण्डी विरलवेगिका, रोहिणी मनोवेगा, महावेगा, चण्डवेया, परेवा, लघुकरी पावती तदा उष्णदा महाज्वाला, सर्वविद्याच्छेदिनी, युद्धवीर्या, बन्धमोचनी, प्रहारावरणी, भ्रामरी, ग्रभोगिनी इत्यादि कुल और जाति में उत्पन्न हुई अनेक विद्याएं सिद्ध की। उन सब विद्याओं का पारगामी होकर वह योगी के समान सुशोभित हो रहा था। दोनों श्रेणियों का अभिपति होने से वह सब विद्याधरों का राजा था और इस प्रकार विद्याधरोचना पाकर वह चिरकाल तक भोग भोगता रहा किसी एक दिन विद्याधरों के अधिपति अभिततेज ने दमवर नामक चार ऋद्धिधारी मुनि को विधिपूर्वक ग्राहारदान देकर पश्चात्पर्य प्राप्त किये किसी एक दिन अमिततेज तथा श्रीविजय ने मस्तक झुकाकर अमर गुरु नामक दो श्रेष्ठ मुनियों को नमस्कार किया. धर्म का यथार्थ स्वरूप देखा, उनके वचनामृत का पान किया और ऐसा संतोष प्राप्त किया मानो अजरश्रमरपना हो प्राप्त कर लिया हो।
तदनन्तर श्री विजय ने अपने तथा पिता के पूर्वभवों का सम्बन्ध पूछा जिससे समस्त पापों को नष्ट करने वाले पहले भगवान प्रमरगुरु कहने लगे। उन्होंने विस्वनन्दी के भय से लेकर समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। उसे सुनकर अमितलेज में भोगों का निदानबन्ध किया । श्रमिततेज तथा श्रीविजय दोनों ने कुछ काल तक विद्याधरों तथा भूमि- गोर्चारियों के सुखामृत का पान किया । तदनन्तर दोनों ने विपुलमति और विमलमति नाम के मुनियों के पास अपनी आयु एक मास मात्र को रह गई है ऐसा सुनकर तेज तथा श्रीदस नाम के पुत्रों के लिए राज्य दे दिया, बड़े सादर से माष्टाहिक पूजा की तथा नन्दन नामक मुनि'राज के समीप चन्दनवन में सब परिग्रह का त्याग कर प्रायोपगमन सन्यास धारण कर लिया। अन्त में समाधिमरण कर शुद्ध बुद्धि का धारक विद्याधरों का राजा श्रमिततेज तेरहवें स्वर्ग के ननावर्थ विमान में रविचूल नाम का देव हुआ और श्री विजय भी इसी स्वर्ग के स्वस्तिक विमान में मणिचूल नाम का देव हुआ। वहां दोनों की आयु बीस सागर की थी। आयु समाप्त होने पर वहां से च्युत हुए ।
उनमें रविचूल नाम का देव ननावर्त विमान से व्युत होकर जम्बुद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में स्थित वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा स्तिमित सागर और उनकी रानी वसुन्धरा के अपराजित नाम का पुत्र हुआ । मणिचूल देव भी स्वस्तिक विमान से च्युत होकर उसी राजा की अनुमति नाम की रानी से अनन्तवीर्य नाम का लक्ष्मी सम्पन्न पुत्र हुआ। वे दोनों ही भाई जम्बूद्वीप के चन्द्रमाओं के समान सुशोभित होते थे क्योंकि जिस प्रकार चन्द्रमा कान्ति से युक्त होता है उसी प्रकार वे भी उत्तम कान्ति से युक्त थे, जिस प्रकार चन्द्रमा कुवलय-नील कमलों को अह्लादित करते थे, जिस प्रकार चन्द्रमा तृष्णारूपी मागापदुःख को दूर करते थे और जिस प्रकार कलावर सोलह कलाओं का धारक होता है उसी प्रकार वे भी अनेक कलाओं, अनेक चतुराइयों के धारक थे। श्रथवा वे दोनों भाई बालसूर्य के समान जान पड़ते थे क्योंकि जिस प्रकार बालसूर्य भास्वद्वपुदेदीप्यमान शरीर का धारक होता है उसी प्रकार वे दोनों भाई भी पद्मानन्द कर --- लक्ष्मी को पान करने वाले थे, जिस प्रकार बालसूर्य भास्ववदेदीप्यमान शरीर के धारक थे, जिस प्रकार बालसूर्य व्यस्ततामसअन्धकार को नष्ट करने वाले थे जिस प्रकार वाल सूर्य नित्योदय होते हैं- उनका उद्गमन निरन्तर होता रहता है उसी
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