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ही बन्ध का कारण है। मनोयोग चार प्रकार है, वचन योग चार प्रकार का है और काय-योग सात प्रकार का है। ये सभी योग यथायोग्य जहां जितने संभव हों उतने प्रकृति और प्रदेश बन्ध के कारण हैं। हे आर्य ! जिनका अभी वर्णन किया है ऐसे इन मिथ्यात्व आदि पाँच के द्वारा वह जीवं अपने-अपने योग्य स्थानों में एक सी वोस कर्मप्रकृतियों ने संदा बंधता रहता है।
__इन्हीं प्रकृतियों के कारण यह जीव गति आदि पर्यायों में बार-बार घूमता रहता है, प्रथम गुणस्थान में इस जीव के सभी जीव समक्ष होते हैं, वहाँ यह जीव तीन अज्ञान और तीन प्रदर्शनों से सहित होता है, उसके प्रौदयिक, क्षायोपशमिक
और परिणामिक ये तीन भाव होते हैं, संयम का अभाव होता है, कोई जीव भव्य रहता है और कोई अभव्य होता है। इस प्रकार संसार चक्र के भंवररूपी गड्ढे में पड़ा हुआ यह जीव तीन अज्ञान और तीन प्रदर्शनों से सहित होता है, उसके प्रौदयिक, क्षायोगशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं संयम का प्रभाव होता है, कोई जीव भव्य रहता है और कोई प्रभव्य होता है। इस प्रकार संसार चक्र के भंवररूपी गड्ढे में पड़ा हया यह जीव जन्म जरा मरण रोग सुख-दुःख आदि विविध भेदों को प्राप्त करता हुआ अनादि काल से इस संसार में निवास कर रहा है। इनमें से कोई जीव कालादि लब्धियों का निमित्त पाकर अधःकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामों से मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियों का उपशम करता है तथा संसार की परिपाटी का विच्छेद कर उपशम सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। तदनन्तर अप्रत्यास्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से श्रावक के बारह ब्रत ग्रहण करता है। कभी प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षयोपशम से महावत प्राप्त करता है। कभी अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया लोभ तथा मिथ्यात्व सम्बमिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है। कभी मोहकर्मरूपी शत्रु के उच्छेद से उत्पन्न हुए क्षायिक चारित्र से अलंकृत होता है। तदनन्तर द्वितीय शुक्ल ध्यान का धारक होकर तीन घातिया कर्मों का क्षय करता है, उस समय नव केवल लब्धियों की प्राप्ति से महन्त होकर सबके द्वारा पूज्य हो जाता है । कुछ समय बाद तृतीय शुक्ल ध्यान के द्वारा समस्त योगों को रोक देता है और समुस्छिन्म क्रियाप्रतिपाती नामक चौथे शुक्ल ध्यान के प्रभाव से समस्त कर्मबन्ध को नष्ट कर देता है। इस प्रकार हे भव्य ! तेरे समान भव्य प्राणी क्रम-क्रम से प्राप्त हए तीन प्रकार के सन्मार्ग के द्वारा संसार-समद्र से पार होकर सदा सुख से बढ़ता रहता है।
इस प्रकार समस्त विद्याधरों का स्वामी अमिततेज, श्री जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही हुई जन्म से लेकर निर्वाण पर्यन्त की प्रक्रिया को सुनकर ऐसा संतुष्ट हुमा मानो उसने अमृत का ही पान किया हो । ऊपर कही हुई कालादि चार लब्धियों की प्राप्ति से उस समय उसने सम्यग्दर्शन से शुद्ध होकर अपने आपको श्रावकों के ब्रत से विभूषित किया। उसने भगवान से पूछा कि हे भगवन् । मैं अपने चित्त में स्थित एक दूसरी बात प्रापसे पूछना चाहता हूं। बात यह है कि इस प्रशनिघोष ने मेरा प्रभाव जानते हुए भी मेरी छोटी बहिन सुतारा का हरण किया है सो किस कारण से किया है ? उक्त प्रश्न में जिनेन्द्र भगवान् भी उसका कारण इस प्रकार कहने लगे।
जम्बुद्वीप के मगध देश में एक अचल नाम का ग्राम है। उसमें भरणीजट नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का माम अग्निला था और उन दोनों के इन्द्रभूति तथा अग्निभूति नाम के दो पुत्र थे। इनके सिवाय एक कपिल नाम दासी पुत्र भी था। जब वह ब्राह्मण अपने पुत्रों को वेद पढ़ाता था तब कपिल को अलग रखता था परन्तु कपिल इतना सुक्ष्मबद्धि था कि उसने अपने आप ही शब्द तथा अर्थ दोनों रूप से देदों को जान लिया था । जब ब्राह्मण को इस बात का पता चला तब उसने कुपित होकर तूने यह अयोग्य कार्य किया यह कहकर उस दासी पुत्र को उसी समय घर से निकाल दिया। कपिल भी दुःखी होता हुआ वहां से रत्नपुर नामक नगर में चला गया । रत्नपुर में एक सत्यक नामक ब्राह्मण रहता था। उसने कपिल को अध्ययन से सम्पन्न तथा योग्य देख जम्बू नामक स्त्री से उत्पन्न हुई अपनी कन्या समर्पित कर दी । इस प्रकार राजपृश्य एवं समस्त शास्त्रों के सारपूर्ण अर्थ के ज्ञाता कपिल ने जिसको कोई खंडन न कर सके ऐसी व्याख्या करते हुए रत्नपुर नगर में कुछ वर्ष व्यतीत किये। कपिल विद्वान अवश्य था परन्तु उसका आचरण ब्राह्मण कुल के योग्य नहीं था अतः
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