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के प्राश्रय से क्या नहीं होता है असि, शंक धनुष, चक्र, शक्ति, दण्ड और गदा ये सात नारायण के रत्न थे। देवों के समूह इनकी रक्षा करते थे।
रत्नमाला, देदीप्यमान हल, मूराल और गन्ना ने भार गोला :प्त का नगाले लो महारत्न थे। नारायण की स्वयंप्रभा को प्रादि लेकर सोलह हजार स्त्रियां थीं और बलभद्र की कुलरूप तथा गुणों से युक्त आठ हजार रानियाँ थीं। ज्वलनजटो विद्याधर ने कुमार अर्ककीति के लिये ज्योतिर्माला नाग की कन्या बड़ी बिभुति के साथ प्राजापत्य विबाह से स्वीकृत की। अर्ककीति और ज्योतिर्माला के अमिततेज नाम का पुत्र तथा सुतारा नाम की पुत्री हुई। ये दोनों भाई-बहिन ऐसे सुन्दर थे मानों शुक्ल पक्ष की पडिबा के चन्द्रमा की रेखाएं ही हों। इधर त्रिपृष्ट नारायण के स्वयंप्रभा रानी से पहले श्रीविजय नाम का पुत्र हमा, फिर विजयभद्र पुत्र हुआ, फिर ज्योतिप्रभा नाम की पुत्री हुई। महान् अभ्युदय को प्राप्त हुए प्रजापति महराज को कदाचित् बैराग्य उत्पन्न हो गया जिससे पिहितास्रब गुरु के पास जाकर उन्होंने समस्त परिग्रह का त्याग कर दिया और श्रीजिनेन्द्र भगवान का वह रूप धारण कर लिया जिससे सुख स्वरूप परमात्मा का स्वभाव प्राप्त होता है । छह बाह्य और छह ग्राम्यन्तर के भेद से बारह प्रकार के तपश्चरण में निरन्तर उद्योग करने वाले प्रजापति मुनि ने चिरकाल तक तपस्या की और आयु के अन्त में चित्त को स्थिर कर क्रम से मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, सकषायता तथा सयोग केवली अवस्था का त्याग कर परमो. स्कृष्ट अवस्था-मोक्ष पद प्राप्त किया। विद्याधरों के राजा ज्वलनजटी ने भी जब यह समाचार सुना तब उन्होंने अर्ककीति के लिए राज्य देकर जगन्नन्दन मूनि के समीप दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। याचना नहीं करना, बिना दिये कछ ग्रहण नहीं करना, सरलता रखना, त्याग करना, किसी चीज की इच्छा नहीं रखना, क्रोधादि का त्याग करना, ज्ञानाभ्यास करना और ध्यान करना-इन सब गुणों को वे प्राप्त हुए थे। वे समस्त पापों का त्याग कर निर्द्वन्द्व हुए । निराकार होकर भी साकार हुए तथा उत्तम निर्वाण पद को प्राप्त हुए।
इधर विजय बलभद्र का अनुगामी विपृष्ठ कठिन शत्रुनों पर विजय प्राप्त करता हुआ तीन खण्ड की अखण्ड पृथ्वी के भोगों का इच्छानुसार उपभोग करता रहा । किसी एक दिन त्रिपृष्ठ में स्वयंवर की विधि से अपनी कन्या ज्योति:प्रभा के द्वारा जामाता अमिततेज के गले में वरमाला डलवाई। अनुराग से सूतारा भी इसी स्वयंवर की विधि से धीविजय के वक्षःस्थल पर निवास करने वाली हुई। इस प्रकार परस्पर में जिन्होंने अपने पुत्र-पुत्रियों के सम्बन्ध किये हैं ऐसे ये समस्त परिवार के लोग स्वच्छन्द जल से भरे हुए प्रफुल्लित सरोवर की शोभा को प्राप्त हो रहे थे । प्रायु के अन्त में अर्धचक्रवर्ती त्रिपृष्ट तो सातवें नरक गया और विजय बलभद्र थीबिजय नामक पुत्र के लिए राज्य देकर तथा विजयभद्र को युवराज बनाकर पापरूपी शत्रु को नष्ट करने के लिए उद्यत हुए। यद्यपि उनका चित नारायण के शोक से व्याप्त था तथापि निकट समय में मोक्षगामी होने से उन्होंने सुवर्णकुम्भ नामक मुनिराज के पास जाकर सात हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया।
धातिया कर्म नष्ट कर केवलज्ञान उत्पन्न किया और देवों के द्वारा पूज्य अनगारकेवली हुए। यह सुनकर अर्ककीति में अमिततेज को राज्य पर बैठाया और स्वयं विपुलमति नामक चारणमुनि से तप धारण कर लिया। कुछ समय बाद उसने 'प्रष्ट कर्मों को नष्ट कर अभिवांछित अष्टम पृथ्वी प्राप्त कर ली सो ठीक ही है क्योंकि इस संसार में जिन्होंने अाशा का त्याग कर दिया है उन्हें कौन सी वस्तु अप्राप्त है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। इधर अमिततेज और श्रीविजय दोनों में प्रखण्ड प्रेम था, दोनों का काल बिना किसी प्राकलता के सुख से व्यतीत हो रहा था किसी दिन कोई एक पुरुष श्री विजय राजा के पास पाया और पाशीर्वाद देता हुआ बोला कि हे राजन् ! मेरी वात पर चित्त लगाइये। आज से सातवें दिन पोदनपुर के राजा के मस्तक पर महावन गिरेगा, अतः शीघ्र ही इसके प्रतिकार का विचार कीजिये । यह सुनकर युवराज कुपित हुआ, उसकी प्रांखें क्रोध से लाल हो गई। वह उस निमित्त ज्ञानीसे बोला कि यदि तू सर्वज्ञ है तो बता कि उस समय तेरे मस्तक पर क्या पड़ेगा? निमित्त ज्ञानी ने भी कहा कि उस समय मेरे मस्तक पर अभिषेक के साथ रत्नवृष्टि पड़ेगी। उसके अभिमान पूर्ण वचन सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ। उसने कहा कि हे भद्र ! तुम प्रासन पर बैठो, मैं कुछ कहता हूं।
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