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और उसे हरण करने का उद्यम करने लगा। उसने एक कृत्रिम हरिण के छल से राजा को सुतारा के पास से अलग कर दिया और वह दृष्ट श्री विजय का रूप बनाकर सुधारा के पास लोट कर वापिस आया और कहने लगा कि हे प्रिय ] वह मृग बाबु के समान वेग से चला गया। मैं उसे पकड़ने के लिये असमर्थ रहा श्रतः लौट थाया हूं, अब सूर्य अस्त हो रहा है इसलिये हम दोनों अपने नगर की ओर चलें । इतना कहकर उस घूर्त विद्याधर ने सुतारा को विमान पर बैठाया और वहाँ से चल दिया। बीच में उसने अपना रूप दिखाया जिसे देखकर यह कौन है ऐसा कहती हुई सुतारा बहुत ही विह्वल हुई। इधर उसी प्रशिनघोष विद्याधर के द्वारा प्रेरित हुई बैताली विद्या सुतारा का रूप रखकर बैठ गई।
जय श्री विजय वापिस लौटकर आया तब उसने कहा कि मुझे कुक्कुट सांप ने डस लिया है। इतना कहकर उसने बड़े संभ्रम से ऐसी बैष्टा बनाई जैसे मर रही हो उसे देख राजा ने जाना कि इसका विष मणि मंत्र तथा भौषधि आदि से दूर नहीं हो सकता । अन्त में निराश होकर स्नेह से भरा पोदनाधिपति उस कृत्रिम सुतारा के साथ मरने के लिये उत्सुक हो गया । उसने एक चिता बनाई, सूर्यकान्त मणि से उत्पन्न अग्नि के द्वारा उसका ईंधन प्रज्वलित किया और शोक से व्याकुल हो उस कपटी सुतारा ' के साथ चिता पर श्रारूढ़ हो गया। उसी समय वहां से कोई दो विद्याधर जा रहे थे उनमें एक महा तेजस्वी था उसने विद्याविच्छेदिनी नाम की विद्या का स्मरण कर उस भयभीत वैताली को दायें पैर से ठोकर लगाई जिससे उसने अपना सली रूप दिखा दिया अब वह भी विजय के सामने खड़ी रहने के लिये भी समर्थ न हो सकी अतः प्रदृश्यता को प्राप्त हो गई। यह देख राजा श्री विजय बहुत भारी आश्चर्य को प्राप्त हुए । उन्होंने कहा कि यह क्या है ? उत्तर में विद्याधर उसकी कथा इस प्रकार कहने लगा ।
इस जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र के विजवार्थ पर्वत की दक्षिण श्रेणी में एक ज्योति प्रभ नाम का नगर है। मैं वहाँ का राजा संभिन्न हूं, यह सर्वकल्याणो नाम को मेरी स्त्री है और यह दीपशिख नाम का मेरा पुत्र है । मैं अपने स्वामी रथनूपुर नगर के राजा अमिततेज के साथ शिखरनल नाम से प्रसिद्ध विशाल उद्यान में बिहार करने के लिए गया था । वहाँ से लौटते समय मैंने मार्ग में सुना कि एक स्त्री अपने विमान पर बैठी हुई रो रही है और कह रही है कि मेरे स्वामी श्री विजय कहां हैं? हे रयनपुर के नाथ! कहां हो? मेरी रक्षा करो। इस प्रकार उसके करण पाब्द सुनकर मैं वहां गया और बोला कि तू कौन है ? तथा किसे हरण कर ले जा रहा है ? मेरी बात सुनकर वह बोला कि मैं चमरचंचपुर नगर का राजा अशनिघोष नाम का विद्याधर हूं। इसे जबर्दस्ती लिये जा रहा हूं, यदि श्राप में शक्ति है तो आओ और इसे छुड़ाओ। यह सुनकर मैंने निश्चय किया कि यह तो मेरे स्वामी अमिततेज की छोटी बहिन को ले जा रहा है। मैं साधारण मनुष्य की तरह केमे चला जाऊ ? इसे अभी मारता हूं। ऐसा निश्चय कर मैं उसके साथ युद्ध करने के लिये तत्पर हुआ ही था कि उस स्त्री ने मुझे रोककर कहा कि आग्रह या वृथा युद्ध मत करो, पोदनपुर के राजा ज्योतिर्बन में मेरे वियोग के कारण शोकाग्नि से पीड़ित हो रहे हैं तुम वहाँ जाकर उनसे मेरी दशा कह दो। इस प्रकार हे राजन, मैं तुम्हारी स्त्री के द्वारा भेजा हुआ यहां आया हूं। यह तुम्हारे बैरी की आज्ञा कारिणी बंताली देवी है। ऐसा उस हितकारी विद्याधर ने बड़े आदर से कहा। इस प्रकार संभिन्न विद्याधर के द्वारा कही हुई बात का पोदनपुर के राजा ने बड़े आदर से सुना और और कहा कि आपने यह बहुत अच्छा किया। आप मेरे सन्मित्र है प्रतः इस समय आप शीघ्र ही जाकर यह समाचार मेरी माता तथा छोटे भाई प्रादि से कह दीजिये । ऐसा कहने पर विद्याधर ने अपने दीपशिख नामक पुत्र को शीघ्र ही पोदनपुर की ओर भेज दिया। उधर पोदनपुर में भी बहुत उत्पातों का विस्तार हो रहा था, उसे देखकर अमोघजिह्न मोर जयगुप्त नाम के निमित्त ज्ञानी बड़े संयम से कह रहे थे कि स्वामी को कुछ भय उत्पन्न हुआ था परन्तु अब वह दूर हो गया है, उनका कुशल समाचार लेकर आज ही कोई मनुष्य आवेगा इसलिए आप लोग स्वस्थ रहें, भय को प्राप्त नहीं इस प्रकार के दोनों ही विद्याधर, स्वयंप्रभा आदि को धीरज बंधा रहे थे। उसी समय दीपशिख नाम का बुद्धिमान् विद्याधर ग्राकाश से पृथ्वी तल पर श्राया और विधि पूर्वक स्वयंप्रभा तथा उसके पुत्र को प्रणाम कर कहने लगा कि महाराज श्री विजय की सब प्रकार की कुशलता
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