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___ इस भरत क्षेत्र के सिंहपुर नगर में मिथ्याशास्त्रों के सुनने से अत्यन्त घमण्डी सोम नाम का परिव्राजक रहता था उसने जिनदास के साथ वाद-विवाद किया परन्तु वह हार गया। आयु के अन्त में मर कर उसी नगर में एक बड़ा भारी भैसा हुमा । उस पर एक वैश्य चिरकाल तक नमक का बहुत भारी बोझ लादता रहा। जब वह बोझ ढोने में असमर्थ हो गया तब उसके पालकों ने उसकी उपेक्षा कर दी–खाना-पीना देना भी बन्द कर दिया। कारण वन उसे जाति-स्मरण हो गया और वह नगर भर के साथ बैर करने लगा। अन्त में भर कर वहीं के श्मशान में पापी राक्षस हुना। उस नगर के कुम्भ और भीम नाम के दो अधिपति थे । कुम्भ के रसोइया का नाम रसायनपाक था, राजा कुम्भ मांसभोजी था, एक दिन मांस नहीं था इसलिये रसोइया ने कुम्भ को मरे हुए बच्चे का मांस खिला दिया। वह पापी उसके स्वाद से लुभा गया इसलिए उसी समय से उसने मनुष्य का मांस खाना शुरू कर दिया, वह वास्तव में नरक गति प्राप्त करने का उत्सुक था। राजा प्रजा का रक्षक है इसलिये जब तक प्रजा की रक्षा करने में समर्थ है तभी तक राजा रहता है परन्तु यह तो मनुष्यों को खाने लगा है अतः त्याज्य है ऐसा विचार कर मन्त्रियों ने उस राजा को छोड़ दिया। उसका रसोइया उसे नर-मांस देकर जीवित रखता था परन्तु किसो समय उस दुष्ट ने अपने रसोइया को ही मारकर विद्या सिद्ध कर ली और उस राक्षस को वश कर लिया। अब वह राजा प्रतिदिन चारों ओर घूमता हुआ प्रजा को खाने लगा जिससे समस्त नगरवासी भयभीत हो उस नगर को छोड़कर बहुत भारी भय के साथ कारकट नामक नगर में जा पहुंचे परन्तु अत्यन्त पापी कुम्भ राजा उस नगर में भी पाकर प्रजा को खाने लगा । उसी समय से लोग उस नगर को कुम्भ कारकटपुर कहने लगे ।
मनुष्यों ने देखा कि यह नरमतो है इसलिये उन्होंने उसकी व्यवस्था बना दी कि तुम प्रतिदिन एक गाड़ी भात और एक मनुष्य को खाया करो। उसी नगर में एक चण्डकौशिक नाम का ब्राह्मण रहता था मथी उसको स्त्रो थी । चिरकाल तक भतों को उपासना करने के बाद उन दोनों ने मण्डकौशिक नाम का पुत्र प्राप्त किया किसी एक दिन कुम्भ के आहार के लिये मण्डकौशिक की बारी बाई । लोग उसे गाड़ी में डालकर ले जा रहे थे कि कुछ भूत उसे ले भागे। कुम्भ ने हाथ में दण्ड लेकर उन भतों का पीछा किया, भूत उसके आक्रमण से डर गये । इसलिये उन्होंने मुण्डकौशिक को भय से एक बिल में डाल दिया परन्तु एक अजगर ने वहां उस ब्राह्मण को निगल लिया। इसलिये महाराज को विजया की गुहा में रखना ठीक नहीं है। बुद्धि सागर के ये हितकारी वचन सुनकर सूक्ष्म बुद्धिकाधारी मतिसागर मंत्री कहने लगा कि निमित्तज्ञानी ने यह तो कहा नहीं है कि महाराज के ऊपर ही वन गिरेगा । उसका तो कहना है कि जो पोदनपुर का राजा होगा उस पर वन गिरेगा। इसलिये किसी दसरे मनुष्य को पोदनपुर का राजा बना देना चाहिये । उसकी यह बात सबने मान ली और कहा कि पापको यह बात ठीक है। अनन्तर सब मंत्रियों ने मिलकर राजा के सिंहासन पर एक यक्ष का प्रतिबिम्ब रख दिया। और तुम्ही पोदनपुर के राजा हो यह कहकर उसकी पूजा की। इधर राजा ने राज्य के भोग उपभोग सब छोड़ दिगे, पूजादान प्रादि सत्कार्य प्रारम्भ कर दिये।
भाव वालो मंडली को गाथ लेकर जिन चैत्यालय में शांति कर्म करता हया बैठ गया सातव दिन उस यक्ष की मूर्ति पर बड़ा भारी शब्द करता हुया भयंकर वन अकस्मात् बड़ी कठोरता से प्रा पड़ा। उरा उपद्रव के शान्त होने पर प्रजा ने बड़े हर्ष से बजते हुए नगाड़ों के शब्दों से बहुत भारी उत्सव किया ।
राजा ने बड़े हर्प के साथ उस निमित्त ज्ञानी को बुला कर उसका सत्कार किया और पानीखेट के साथ उसे सौ गांव दिये। श्रेष्ठ मंत्रियों ने सीन लोक के स्वामी अरहंत भगवान की विधिपूर्वक भक्ति के साथ शान्ति पजा की महाभिषेक किया और जाजा को सिंहासन पर बैठा कर स्वर्णमय कलशों से उनका कलाभिषेक किया तथा उत्तम राज्य में प्रतिष्ठित किया। इसके बाद उसका काल बहुत भारी सुख से बीतने लगा। किसी एक दिन उसने अपनी माता से आकाशगामिनी विद्या लेकर सिद्ध की और सतारा के साथ रमण करने की इच्छा से ज्योतिर्वन की और गमन किया। वह वहाँ अपनी इच्छानुसार लीला-पूर्वक विहार करता हया रानी के साथ बैठा था, यहां चमरचंचपुर का राजा इन्द्रशनि, रानी आसुरी का लक्ष्मी सम्पन्न प्रशनिघोप नाम का विद्याधर पुत्र नामरी विद्या को सिद्ध कर अपने नगर को लौट रहा था। बीच में सुतारा को देखकर उस पर उसकी इच्छा हुई
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