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प्रजातिका पुत्र त्रिपृष्ठ है। बड़ा ग्रहकारी है । वह अपने पराक्रम में सब राजाओं पर आक्रमण कर उन्हें जीतना चाहता है।
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वह हम लोगों के विषय में कंसा है ? - अनुकूल प्रतिकूल कैसे विचार रखता है इस प्रकार सरल चित्त-निष्कपट दूत भेजकर उसकी परीक्षा करनी चाहिये मंत्रियों ने ऐसा पृथक्-पृथक् राजा से कहा। उसी समय उसने उक्त बात सुनकर चिन्तागति और मनोगति नाम के दो विद्वान दूत विपृष्ठ के पास भेजे। उन दूतों ने जाकर पहले अपने आने की राजा के लिये सूचना दी, फिर राजा के दर्शन किये अनन्तर विनय से नम्रोभूत होकर यथायोग्य भेंट दी। फिर कहने लगे कि राजा अश्वग्रीव ने आज तुम्हें प्राज्ञा दी है कि मैं रथावर्त नाम के पर्वत पर जाता हूं ग्राप भी प्राइये। हम दोनों तुम्हें लेने के लिये हैं। आपको उसकी बात मस्तक पर रखकर आना चाहिये। ऐसा उन दोनों ने जोर से कहा। यह सुनकर त्रिपृष्ठ बहुत कुछ हुआ और कहने लगा कि अश्वग्रीव (घोड़े जैसी गर्दन वाले) खरग्रीव ( गधे जैसी गर्दन वाले) कौचग्रीव (क्रौंच पक्षी जैसे गर्दन वाले) और कमेलक ग्रीव ( ऊंट जैसी गर्दन वाले ) ये सब मैंने देखे हैं। हमारे लिये वह अपूर्व प्रादभी नहीं जिससे कि देखा जावे ।
जब वह त्रिपुष्ठ कह चुका तब दूतों ने फिर से कहा कि वह अश्वग्रीव सब विद्याधरों का स्वामी है, सबके द्वारा पूजनीय है और आपका पक्ष करता है इसलिए अपमान करना उचित नहीं है । यह सुन त्रिपृष्ठ ने कहा कि वह खग अर्थात् पक्षियों का ईश है- स्वामी है इसलिए पक्ष अर्थात् पंखों से चले इसके लिए मनाई नहीं है परन्तु मैं उसे देखने के लिए नहीं जाऊंगा। यह सुनकर दूतों ने फिर कहा कि अहंकार से ऐसा नहीं कहना चाहिये | चक्रवर्ती के देखे बिना शरीर में भी स्थिति नहीं हो सकती फिर भूमि पर स्थिर रहने के लिए कौन समर्थ है ? दूतों के वचन सुनकर त्रिपृष्ठ ने फिर कहा कि तुम्हारा राजा चक्र फिराना जानता हैं सो क्या वह घट यादि को बनाने वाला (कुम्भकार) कर्ता कारक है, उसका क्या देखना है ? यह सुनकर दूनों को क्रोध आ गया। वे कुपित होकर बोले कि यह कन्यारत्न जो कि चक्रवर्ती के भोगने योग्य है क्या श्रव तुम्हें हजम हो जावेगा ? और चक्रवर्ती के कुपित होने पर रथनूपुर का राजा ज्वलनजटी तथा प्रजापति अपना नाम भी क्या सुरक्षित रख सकेगा । इतना कह वे दूत वहाँ से शीघ्र ही निकल कर श्रश्वग्रीव के पास पहुंचे और नमस्कार कर त्रिपृष्ठ के वैभव का सगार कहने लगे ।
सूचना
वीय यह सब सुनने के लिए असमर्थ हो गया, उसकी क्रांखें रूखी हो गई और उसी समय उसने युद्ध प्रारम्भ करने को 'देने वाली भेरी बजत्रा दी। उस भेरी का शब्द दिग्गजों का भद नष्ट कर दिशाओं के अन्त तक व्याप्त हो गया सो ठीक ही है क्योंकि चक्रवर्ती के कुपित होने पर ऐसे कौन महापुरुष हैं जो भयभीत नहीं होते हों। वह श्रश्वग्रीव चतुरंग सेना के साथ रथावर्त पर्वत पर जा पहुंचा, वहां उल्काएं गिरने लगीं, पृथ्वी हिलने लगी और दिशाओं में दाह दोष होने लगे। जिनका श्रोज चारों ओर फैल रहा है और जिन्होंने अपने प्रतापरूपी अग्नि के द्वारा शत्रुरूपी ईन्धन को राशि भस्म कर दी है ऐसे प्रजापति के दोनों पुत्रों को जब इस बात का पता चला तो इसके सम्मुख आये। वहां दोनों सेनाओं में महान् संग्राम हुआ । दोनों सेनाओं का समानक्षय रहा था इसलिए यमराज सचमुच ही समवर्तिता मध्यस्था को प्राप्त हुआ था । चिरकाल तक युद्ध करने के बाद त्रिपृष्ठ ने सोचा कि सैनिकों का व्यर्थ हो क्षय क्यों किया जाता है। ऐसा सोचकर वह युद्ध के लिए
ग्रीव
के सामने श्राया ।
जन्मान्तर से बंधे हुए भारी बंर के कारण अवग्रीव बहुत क्रुद्ध था श्रतः उसने बाण वर्षा के द्वारा शत्रु को प्राच्छादित कर लिया। जब वे दोनों द्वन्द युद्ध से एक-दूसरे को जीतने के लिए समर्थ न हो सके तब महाविद्याओं के बल से उद्धत हुए दोनों मायायुद्ध करने के लिये तैयार हो गये। अश्वग्रीव ने चिरकाल तक युद्धकर शत्रु के सन्मुख चक्र फेंका श्रीर नारायण त्रिपृष्ठ ने वही चक्र लेकर क्रोध से उसकी गर्दन छेद डाली। शत्रुओं के नष्ट करने वाले त्रिपुष्ठ और विजय प्राधे भरत क्षेत्र का आधिपत्य पाकर सूर्य और चन्द्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे । भूमिगोचरी राजाओं, विद्याधर राजाओं और मगधादि देवों के द्वारा जिनका अभिषेक किया गया था ऐसे त्रिपृष्ठ नारायण पृथ्वी में श्रेष्ठता को प्राप्त हुए। प्रथम नारायण त्रिपृष्ठ ने हर्षित होकर स्वयंप्रभा के पिता के लिए दोनों श्रेणियों का यधिपत्य प्रदान किया सो ठोक है क्योंकि श्रीमानों
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