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शत्रनों पर प्राक्रमण कर प्रात्मीय लोगों को अपने गुणों से अनुरक्त बनाया था। यद्यपि उन दोनों की लक्ष्मी अविभक्त थीपरस्पर बाँटी नहीं गई थी तो भी उनके कोई दोष उत्पन्न नहीं करती श्री मो ठीक ही है क्योंकि जिनका चित्त शुद्ध है उनके लिए सभी वस्तुएं शुद्धता के लिए ही होती है।
अथान्तर इसी भरतक्षेत्र के कुरुजांगल देश में एक हस्तिनापुर नाम का नगर है उसंग मधुनोड़ नाम का राजा राज्य करता था। वह सुमित्रा को जीतने वाले राज सिंह का जीव था। उसने समस्त शत्रुग्री के सगुह की जो लिया था, वह तेजी से चढ़ते हुए वलभद्र और नारायण को नहीं सह सका इसलिए उस बलवान् ने कर --स्वरूप मानेको श्रेष्ठ रत्न मांगने के लिए दण्ड गर्भ नाम का प्रधान मंत्री भेजा। जिस प्रकार हाथी के कण्ठ का शब्द सुनकर सिंह कब हो जाते हैं उसी प्रकार सूर्य के समान तेज के धारक दोनों भाई प्रधान मंत्री के शब्द सुनकर ऋद्ध हो उठे। और कहने लगे कि वह पूर्मलने के लिए सांपों से भरा हुमा कर माँगता है सो यदि वह पास आया तो उसके लिए वह कर अवश्य दिया जावेगा। इस प्रकार त्रोध से वे दोनों भाई कठोर शब्द कहने लगे और उस मन्त्री ने शीघ्र ही जाकर राजा मधुकीड़ को इसकी खबर दी। राजा मधुकीड़ भी उनके दुर्वचन मनकर त्रोध से लाल हो गया और उनके साथ युद्ध करने के लिए बहुत बड़ी सेना लेकर चला। यब करने में चतुर नारायण भी उसके सामने पाया, उसपर अाक्रमण किया, चिरकाल तक उसके साथयुद्ध किया और अन्त में उसी के चलाये हार पत्र से शीघ्र उसका शिर काट डाला। दोनों भाई तीन खण्ड के अधीश्वर बनकर राज्यलक्ष्मी का उपभोग करते रहे। उनमें नारायण, प्राय का अन्त होने पर सातवे नरक गया। उसके शोक में बलभद्र ने धर्मनाथ तीर्थकर की शरण में जाकर दीक्षा ले ली और पापों के ममूह को नष्ट कर परम पद प्राप्त किया।
देखो, दोनों ही भाई शत्रसेना को नष्ट करने वाले थे, अभिमानी थे, चर वीर थे, एण्य के फल का उपभोग करने वाले थे. और तीन खण्ड के स्वामी थे फिर भी इस तरह दुष्ट कर्म के द्वारा अलग-अलग कर दिये गये । मोह के उदय से पाप का फल नारायण को प्राप्त हुआ इसलिए पापों को प्रथीनता को धिक्कार है। पुरुषसिंह नारायण, पहले प्रसिद्ध राजगृह नगर में सुमित्रा नाम का राजा था, फिर माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुया, वहाँ से च्युत होकर इस खगपुर नगर में पुरुपसिंह नाम का नारायण हमा और उसके पश्चात भयंकर सातव नरक में नारको हुना। मधुक्रीड़ नारायण पहले मदोन्मत्त हाथियों को वश में करने वाला राजसिंह नाम का राजा था, फिर मार्ग भ्रष्ट होकर चिरकाल तक संसाररूपी वन में भ्रमण करता रहा, तदनन्तर धर्म मार्ग का अवलम्बन कर हस्तिनापुर नगर में मधुकीड़ नाम का राजा हया और उसके पश्चात दुर्गति को प्राप्त हया। सदर्शन बलभद्र पहले प्रसिद्ध वीतशोक नगर में नरवृषभ नामक राजा था, फिर चिरकाल तक घोर तपःमरण कर पसार स्वर्ग में देव हया, फिर वहां से चय कर खगपुर नगर में शत्रमों का बल नष्ट करने वाला बलभद्र हुना सौर फिर टामा का घर होता हुआ मरणरहित होकर क्षायिक सुख को प्राप्त हुमा।
इन्हीं धर्मनाथ तीर्थकर के तीर्थ में तीसरे मघवा चक्रवर्ती हए इसलिए तीसरे सब से लेकर उनका पुराण कहता हूं। श्री बासपूज्य तीर्थकर के तीर्थ में नरपति नाम का एक बड़ा राजा था वह भाग्योदय में प्राप्त हुए भोगों को भोग कर विरक्त इना और उत्कृष्ट तपश्चरण कर मरा । अन्त में पूण्योदय से मध्यम |बेयक में अहमिन्द्र हुमा । सत्ताईम सागर तक मनोहर दिव्य भोगों को भोगकर वह वहां से च्युत हुग्रा और धर्मनाथ तीर्थकर के अन्तराल में कोशल नामक मनोहर देश की अयोध्यापरी के स्वामी इक्ष्वाकुवंशी राजा सुमित्रा की भद्रारानी से मघवान् नाम का पुण्यात्मा पुत्र हुँआ । यही धागे चलकर भरतक्षेत्र का स्वामी चक्रवर्ती होगा। उसने पांच लाख वर्ष की कल्याणकारी उत्कृष्ट आयु प्राप्त की थी। माड़े चालीस धनुष ऊंचा उसका शरीर था, सवर्ण के समान शरीर की कीति थी। वह प्रतापी छह खण्डों से सुशोभित पृथ्वी का पालन कर चौदह महारत्नों से विभूषित एवं नौ निधियों का नायक था। वह मनुष्य, विद्याधर और इन्द्रों को अपने चरणयुगल' में झुकाता था । चक्रबतियों की विभूति के प्रमाण में कही हई-छयानवे हजार देवियों के साथ इच्छानुसार दश प्रकार के भोगों को भोगता हुप्रा बह अपने मनोरथ पूर्ण करता था। किसो एक दिन मनोहर नामक उद्यान में अकस्मात् अभयघोप नामक केबली पधारे। उस बुद्धिमान ने उनके दर्शन कर तीन प्रदक्षिणाएं दी, वन्दना की, धर्म का स्वरूप सुना, उनके समीप तत्वों के सद्भाव का ज्ञान प्राप्त किया,