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धारक उनकी शोभा बढ़ा रहे थे, चार हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी उन्हें घेरे रहते थे, दो हजार आठ सौ वादियों के समूह उनकी बन्दना करते थे, इस तरह सब मिलाकर चौंसठ हजार मुनि उनके साथ रहते थे, सुव्रता यादि को लेकर बासठ हजार चार सौ आशिकायें उनकी पूजा करती थीं, वे दो लाख श्रावकों से सहित थे, चार लाख श्राविकाओं से प्रावृत थे, असंख्यात देव देवियों और संख्यात तियंचों में सेवित थे। इस प्रकार बारह सभाओं की सम्पति तथा धर्म की ध्वजा से सुशोभित भगवान ने धर्म का उपदेश दिया ।
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प्रन्स में बिहार बन्द कर वे पर्वतराज सम्मेद शिखर पर पहुंचे और एक माह का योग निरोध कर आठ सौ तो मुनियों के साथ ध्यानारूढ़ हुये । तथा ज्येष्टश्वला चतुर्थी के दिन रात्रि के अन्तिम भाग में सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाती और व्युपरत क्रियानिवर्ती नामक शुत्रल ध्यान को पूर्ण कर पुष्य नक्षत्र में मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त हुए। उसी समय सब ओर से देवों ने आकर निर्वाण कल्याणक का उत्सव किया तथा बन्दना की जो पहले भव में त्रुयों को जीतने वाले दशरथ राजा हुए, फिर ग्रहमिन्द्रता को प्राप्त हुए तथा जिनके द्वारा कहे हुए दश धर्म पापों के साथ युद्ध करने में दश रथों के समान आचरण करते हैं वे धर्मनाथ भगवान तुम सबकी रक्षा करें। जिन्होंने समस्त चातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं, जिनका केवल ज्ञान अत्यन्त निश्चल है, जिन्होंने धर्म का प्रतिपादन किया है, जो तीनों शरीरों के नष्ट हो जाने से घायन्त निर्मल है, जो स्वयं अमरत सुख से सम्पन्न हैं और जिन्होंने समस्त श्रात्माओं को शान्त कर दिया है ऐसे धर्मनाथ जिनेन्द्र तुम सबके लिए सुख प्रदान करें ।
श्रथानन्तर इन्हीं धर्मनाथ भगवान के तीर्थ में श्रीमान सुदर्शन नाम का बलभद्र तथा सभा में सबसे बलवान पुरुषसिंह नाम का नारायण हुआ। अतः यहां उनका तीन भव का दर्शित करता हूं। इसी राजगृह नगर में राजा सुमित्र राज्य करता था, वह वहा अभिमान था, बड़ा मल्ल था, उसने बहुत मस्लों को जीत खिया था इसलिए परीक्षक लोग उनकी पूजा किया करते थे- उसे पूज्य मानते थे, वह सदा दूसरों को तृण के समान तुच्छ मानता था और दुष्ट हाथी के समान मदोन्मत था । किसी समय मद से उद्धत तथा मल्लयुद्ध का जानने वाला राजसिंह नाम का राजा उसका गर्व शान्य करने के लिए राजगृह नगरी में आया। उसने बहुत देर तक युद्ध करने के बाद रंगभूमि में स्थित राजा सुमित्र को हरा दिया जिससे वह दांत उखाड़े हुए हाथी के समान बहुत दुःखी हुआ मान भंग होने से उसका हृदय एकदम टूट गया, वह राज्य का भार धारण करने में समर्थ नहीं रहा पयः उसने राज्य पर पुत्र को नियुक्त कर दिया सो ठीक ही है क्योंकि मान ही भानियों के प्राण है।
निर्वेद से भरा हुआ राजा सुमित्र कृष्णाचार्य के पास पहुंचा और उनके द्वारा कहे हुए धर्मोपदेश को सुनकर दीक्षित हो गया सो ठीक ही है क्योंकि मनस्वी मनुष्यों को यही योग्य है । यद्यपि उसने क्रम क्रम से सिहनिष्कीडित आदि कठिन तप किये तो भी उनके हृदय में अपने राज्य का सकलेश बना रहा अतः ग्रन्त में उसने ऐसा विचार किया कि यदि मेरी इस पदच का फल अन्य जन्म में प्राप्त हो तो मुझे ऐसा महान् थल और पराश्रम प्राप्त होते जिससे में शत्रुओं को जीत सकूँ । ऐसा निदान कर वह संभ्यास से मरा और माहेन्द्र स्वर्ग में सात सायर की स्थिति वाला देव हुआ। वह वहां भोगों को भोगता हुमा चिरकाल तक सुख से स्थित रहा। तदनन्तर इसी जम्बुद्वीप में मेरा पर्वत के पूर्व की ओर बीजांकापुरी नाम की नगरी है। उसमें ऐश्वर्यशाली नरवृषभ नाम का राजा राज्य करता था। उसने वाभ्यांतर प्रकृति के कोप से रहित राज्य भोगा, बहुत भारी सुख 'भोगे और पन्त में विरक्त होकर समस्त राज्य त्याग दिया और दमपर मुनिराज के पास दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली ।
अपनी विशाल आयु कठिन तप से बिताकर वह सहस्रार स्वर्ग में अठारह सागर की स्थिति वाला देव हुआ । प्राण प्रिय देवांगनाओं को निरन्तर देखने से उसने अपने टिपकार रहित नेत्रों का फल किया और आयु के अन्त में शान्तचित्त होकर इसी जम्बूद्वीप के लगत्तुर नगर के इक्ष्वाकुवंशी राजा सिंहसेन की विजया रानी से सुदर्शन नाम का पुत्र हुआ। इसी राजा की अम्बिका नाम की दूसरी रानी के सुमित्र का जीव नारायण हुआ वे दोनों भाई पैतालीस पनुप ऊबे ने घोर दश लाख वर्ष की आयु के धारको एक दूसरे के अनुकूल बुद्धि रूप और बल से सहित उन दोनों भाइयों ने समस्त
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