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पुरुषोत्तम पहल पोदनपुर नगर में वसुषेण नाम का राजा हुआ, फिर लपकर शुक्ल लश्या का धारक देव हुग्रा, फिर वहां से चयकर अर्धभरत क्षेत्र का स्वामी, तथा शत्रुओं को नष्ट करने वाला पुरुषोत्तम नाम का नारायण हुश्रा एवं उसके बाद अधोलोक में सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न हुमा । मलयदेश का अधिपति पापी राजा चण्डशासन चिरकाल तक भ्रमण करता हा मधुसूदन हा और तदन्तर संसाररूपी सागर के अधोभाग में निमग्न हुया। सुप्रभ पहले नन्दन नामक नगर में महावल नाम का राजा था फिर महान तप कर बारहवें स्वर्ग में देव हुआ, तदनन्तर मुप्रभ नाम का बल गद्रमा और समस्त परिग्रह छोड़कर उसी भव से परमपद को प्राप्त हुआ । देखो, सुप्रभ और पुरुषोत्तम एक ही साथ साम्राज्य के श्रेष्ठ मुखों का उपभोग करते थे परन्तु उनमें से पहला- सुप्रभ तो मोक्ष गया और दूसरा पुरुषोत्तम नरक गया, यह सब अपनी वृत्तिप्रवृत्ति की विचित्रता है।
भगवान धर्मनाथ
जिन धर्मनाथ भगवान से प्रत्यन्त निर्मल उत्तमक्षमा आदि दश धर्म उत्पन्न हो वे धर्मनाथ भगवान हम लोगों का अधर्म दूर कर हमारे लिए सुख प्रदान कर । पूर्व धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में नदी के दक्षिण तट पर एक वत्स नाम का देश है । उसमें सुसीमा नाम का महानगर है। वहां राजा दशरथ राज्य करता था, वह बुद्धि, बल और भाग्य तीनों से सहित था। चूंकि उसने समस्त शत्रु अपने वश कर लिये थे इसलिये युद्ध प्रादि के उद्योग से रहित होकर बह शान्ति से रहता था। प्रजा की रक्षा करने में सदा उसकी इच्छा रहती थी और वह बंधुओं तथा मित्रों के साथ निश्चिन्तता-पूर्वक धर्म प्रधान मुखों का उपभोग करता था।
एक बार वैशाख शुक्ल पूर्णिमा के दिन सब लोग उत्सव मना रहे थे उसी समय चन्द्र ग्रहण पड़ा उसे देखकर राजा दशरथ का मन भोगों से एकदम उदास हो गया । यह चन्द्रमा सुन्दर है, कुवलयों-नीलकमला (पक्ष में महीगण्डल) को आनन्दित करने वाला है और कलाओं से परिपूर्ण है । जब इसकी भी ऐसी अवस्था हुई है तब अन्य पुरुष की क्या अवस्था होगी। ऐसा मानकर उसने महारथ नामक पुत्र के लिए राज्य-भार सौंपा और स्वयं परिग्रहाहित होने से भारहीन होकर संयम धारण कर लिया। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन कर सोलह कारण-भावनाओं का चिन्तयन किया, तीर्थकर नामक पुण्य प्रकृति का बन्ध किया और आयु के अन्त में समाधिमरण कर अपनी बुद्धि को निर्मल बनाया। अब वह सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हमा, तंतोस सागर उसकी आयु श्री, एश हाथ ऊंचा उसका शरीर था, चार सौ निन्यानवें दिन अथवा साढ़े सोलह माह में एक बार कुछ श्वास लेता था । लोक नाड़ो के अन्त तक उसके निर्मल अवधिज्ञान का विषय था, उतना ही दूर तक फैलने वाली विक्रिया तेज तथा बलरूप सम्पत्ति से सहित था। तीस हजार वर्ष में एक बार मानसिक आहार लेता था, द्रव्य और भाव सम्बन्धो दानों शुक्ललेश्यानों से युक्त था।
इस प्रकार वह सर्वार्थसिद्धि में प्रदीचार रहित उत्तम सुख का अनुभव करता था । वह पुण्यशालो जब वहां से चय कर मनुष्य लोक में जन्म लेने के लिए तत्पर हुआ। तत्र इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक-रत्नपुर नामका नगर था उसमें कुरुवशा काश्यपगोत्री महातेजस्वी और महालक्ष्मी सम्पन्न महाराज भानु राज्य करते थे उनकी महादेवी का नाम सुप्रभा था, देवों ने रत्नवृष्टि आदि सम्पदानों के द्वारा उसका सम्मान बढ़ाया था। रानी सुप्रभाग पैशाख शुक्ल त्रयोदशी के दिन रेवती नक्षत्र में प्रातःकाल के समय सोलह स्वप्न देखे तथा मुख में प्रवेश करता हआ हाथी देखा । जागकर उसने अपने अवधिज्ञानी पति से उन स्वप्ना का फल मालम किया और ऐसा हर्ष का अनुभव किया मानो पुत्र हो उत्पन्न हो गया हो । उसी समय अन्तिम अनुत्त रविमान से-सर्वार्थसिद्धि से वयकर वह अहमिन्द्र रानी के गर्भ में अवतीर्ण हुआ । इन्द्रों ने प्राकर गर्भ कल्याणक का उत्सव किया।
नव माह बीत जाने पर माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन गुरुयोग में उसने अवधिज्ञान रूपी नेत्रों के धारक पुत्र को उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रों ने समेस पर्वत पर ले जाकर बहत भारी सुवर्ण-कलशों में भरे हये क्षीर सागर के जन से उनका अभिषेक कर आभूषण पहिनाये तथा हर्प से धर्मनाथ नाम रक्खा। जब अनन्तनाथ भगवान के बाद चार सागर
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