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प्रमाण काल बीत चुका और अन्तिम पल्य का आधा भाग जब धर्मरहित हो गया तब धर्मनाथ भगवान का जन्म हुआ था, उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु दश लाख वर्ष को थी, शरीर को कान्ति सुवर्ण के समान थी, शरीर की ऊँचाई एक सौ अस्सी हाथ थी। जब उनके कूमारकाल के अढ़ाई लाख वर्ष बीत गये । तब उन्हें राज्य का अभ्युदय प्राप्त हुआ था । वे अत्यन्त ऊंचे थे, अत्यन्त शद्ध थे, दर्शनीय थे, उत्तम श्राश्रय देने वाले थे, और सबका पोषण करने वाले थे अत: शरद्ऋतु को मेघ के समान थे।
अथवा किसी उत्तम हाथी के समान थे क्योंकि जिस प्रकार उत्तम हाथी भद्र जाति का होता है उसी प्रकार वे भी भद्र प्रकृति थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार बहु दान बहुत मद से युक्त होता है उसी प्रकार ये भी बहु दान-बहुत दान से युक्त थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार सुलक्षण प्रछे-अच्छे लक्षणों सहित होता है उसी प्रकार भी पुरुक्षण पछि सामुद्रिक चिन्हों से सहित थे, उत्तम हाथी जिस प्रकार महान होता है उसी प्रकार वे भी महान्-श्रेष्ठ थे, उत्तम हाथो जिस प्रकार सुकर-उतम सूड से सहित होता है । उसी प्रकार वे भी सुकर—उत्तम हाथों से साहित थे, और उत्तम हाथी जिस प्रकार सुरेभ-उत्तम शब्द से सहित होता है उसी प्रकार वे भी सुरेभ उत्तम-मधुर शब्दों से सहित थे। वे दुर्जनों का निग्रह ओर सज्जनों का अनुग्रह करते थे सो द्वेष अथवा इच्छा के वश नहीं करतेथे अत: निह करते हुए भी वे प्रजा के पूज्य थे। उनकी सगस्त संसार में फैलने वाली कीति यदि लता नहीं थी तो वह कवियों के प्रवचन रूपो जल के सिंचन से आज भी क्यों बढ़ रही है, सुख से सम्भोग करने के योग्य तथा अपने गुणों से अनुरक्त पृथ्वी उनके लिए उत्तम नायिका के समान इच्छानुसार फल देने वाली थी । जब अन्य भव्य जीव इन धर्मनाथ भगवान के प्रभाव से अपने कर्मरूपी शत्रुओं बो, नष्ट कर निर्मल सुख प्राप्त करेंगे तब इनके सुख का वर्णन कैसे किया जा सकता है ?
जब पाँच लाख वर्ष प्रमाण राज्य काल बीत गया तब किसी एक दिन उल्कापात देखने से इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया। विरक्त होकर वे इस प्रकार चिन्तवन करने लगे-'मेरा यह शरीर कसे, कहां और किससे उत्पन्न हुआ है ? क्रियात्मक है, किसका पात्र है और आगे चलकर क्या होगा ऐसा विचार न कर मुझ मूर्ख ने इसके साथ चिरकाल तक संगति की। पाप संचय कर उसके उदय से मैं ग्राज तक दुःख भोगता रहा । कर्म से प्रेरित हए मुझ दुर्मति ने दुःख को ही सुख मारकर कभी शाश्वत--स्थायी सुख प्राप्त नहीं किया। मैं व्यर्थ ही अनेक भवों में भ्रमण कर थक गया। ये ज्ञान दर्शन मेरे गुण हैं यह मैंने कल्पना भी नहीं की किन्तु इसके विरुद्ध बुद्धि के विपरीत होने से रागादि को अपना गुण मानता रहा। स्नेह तथा मोह रूपी ग्रहों से असा हा यह प्राणी बार-बार परिवार के लोगों तथा धन का पोषण करता है और पाप के संचय से अनेक दुर्गतियों में भटकता है।' इस प्रकार भगवान को स्वयं बद्ध जानकर लौकान्तिक देव पाये और बड़ी भक्ति के साथ इस प्रकार स्तुति करने लगे कि हे देव! आज पाप कृतार्थ--- कृतकृत्य हए। उन्होंने मुधर्म नाम के ज्येष्ठ पुत्र के लिए राज्य दिया, दीक्षाकल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव प्राप्त किया, नागदत्ता नाम की पालको में सवार होकर ज्येष्ठ देवों के साथ शालवान उद्यान में जाकर दो दिन के उपवास का नियम लिया और माघ शुक्ला त्रयोदशी के दिन सायंकाल के समय पुष्प नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ मोक्ष प्राप्त कराने वाली दीक्षा धारण कर ली।
दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यय ज्ञान उत्पन्न हो गया। वे दूसरे दिन आहार लेने के लिए पताकाओं से सजी हुई पाटलिपुत्र नाम की नगरी में गये । वहां सुवर्ण के समान कान्ति बाले धन्ययेण राजा ने उन उत्तम पात्र के लिए आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये । तदनन्तर छमस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर उन्होंने उसी पुरातन बन में सप्तच्छद वृक्ष के नीचे दो दिन के उपवास का नियम लेकर योग धारण किया और पौषशक्ल पूर्णिमा के दिन सायंकाल के समय पुष्य नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त किया । देवों ने चतुर्थ कल्याणक की उत्तम पूजा की । वे अरिष्टरोन को आदि लेकर तैतालीस गणधरों के स्वामी थे, ना सौ ग्यारह पूर्वधारियों से पावत थो, चालीस हजार सात सौ शिक्षकों से सहित थे, तीन हजार छह सौ तीन प्रकार के अवधिज्ञानियों से युक्त थे, भार हजार पाँच सौ केवल ज्ञानी अभी उनके साथ थे, सात हजार विक्रियाऋद्धि के
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