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समतुंग-उदार प्रकृति का था, जिस प्रकार विजया देव और विद्याधरों का आश्रय-प्राधार-रहने का स्थान है उसी प्रकार सुप्रभ भी देव और विद्याधरों का प्राश्रय-रक्षक था और जिस प्रकार विजयाध श्वेतिमा शुक्लवर्ण को धारण करता है, उसी प्रकार सुप्रभ भी श्वेतिमा शुक्लवर्ण अथवा कोति सम्बन्धी शुक्लता को धारण करता था। यही नहीं, वह सुप्रभ चन्द्रमा को भी पराजित करता था क्योंकि चंद्रमा कलंक सहित है परन्तु सुप्रभ कलंक रहित था, चन्द्रमा केवल रात्रि के समय हो कान्त-सुन्दर दिखता है परन्तु सुप्रभ रात्रिदिन सदा हो सुन्दर दिखता था, चन्द्रमा सबके चित्त को हरण नहीं करता--त्रका प्रादि को प्रिय नहीं लगता परन्तु सुप्रभ सबके चित्त का हरण करता था-प्रिय था, और चन्द्रमा पदमानन्दविधायो नहीं है-कमलों को विकसित नहीं करता परन्तु सुप्रभपद्मानन्दविधायो था-लक्ष्मी को आनन्दित करने वाला था। उसी राजा को सोना नाम की रानी के वसुषेण का जीव पुरुषोत्तम नाम का पुत्र हुअा जो कि अनेक गुणों से मनुष्यों को प्रानन्दित करने वाला था।
वह पुरुषोत्तम सुमेरु पर्वत के समान सुन्दर था क्योंकि जिस प्रकार सुमेर पर्वत समस्त तेजस्वियों—सूर्य चन्द्रमा प्रादि देवों के द्वारा सेव्यमान है उसी प्रकार पुरुषोत्तम भी समस्त तेजस्त्रियों प्रतापी मनुष्यों के द्वारा सेव्यमान था, जिस प्रकार सुमेरु पर्वत को महोन्नति--भारी ऊंचाई का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता उसी प्रकार पुरुषोत्तम की महोन्नति-भारी श्रेष्ठता अथवा उदारता का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता और जिस प्रकार सुमेरु पर्वत महारत्नों-बड़े-बड़े रत्नों से सुशोभित है उसी प्रकार पुरुषोत्तम भी महारत्नों-बहमुल्य रत्नों अथवा श्रेष्ठ गुणों से सुशोभित था । वे बलभद्र और नारायण क्रमशः शुक्ल और कृष्ण कान्ति के धारक थे, तथा समस्त लोक न्यवहार के प्रवर्तक थे अत: शुक्ल पक्ष और कृष्णपक्ष के समान सुशोभित होते थे। उन दोनों का पचास धनुप ऊत्रा शरीर था तीस लाख वर्ष की दोनों को प्रायु थो और एक समान दोनों को सल था प्रतः साथ ही साय सुजापभाग करते हुए उन्होंने बहुत-सा समय बिता दिया।
प्रधानन्तर-पहले जिस चण्डशासन का वर्णन कर आये हैं वह अनेक भवों में घूमकर काशो देश की वाराणसी नगरी का स्वामी मधुसूदन नाम का राजा हुआ । वह सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी था, उसने समस्त शत्रुमा के समूह को दण्डित कर दिया था तथा उसका बल और पराक्रम बहुत ही प्रसिद्ध था।
नारद से उस असहिष्णु ने उन बलभद्र और नारायण का वैभव सनकर उसके पास खबर भेजो कि तुम मेरे लिए हाथी तथा रत्न प्रादि कर स्वरूप भेजो। उसकी खबर सुनकर पुरुषोत्तम का मन रूपो समुद्र ऐसा क्षुभित हो गया मानो प्रलय काल की वायु से ही क्षुभित हो उठा हो, वह प्रयल काल के यमराज के समान दुष्प्रंक्ष्य हो गया और अत्यन्त श्रोध करने लगा। बलभद्र सुप्रभ भो दिशाओं में अपने नेत्रों की लाल-लाल कन्ति को इस प्रकार बिखेरने लगा मानो क्रोध रूपो अग्नि को उजालाओं के समूह ही बिखेर रहा हो । बह कहने लगा - मैं नहीं जानता कि कर क्या कहलाता है ? क्या हाय को कर कहते हैं ? जिससे कि खाया जाता है । अच्छा तो मैं जिस में तलवार चमक रही है ऐसा कर-हाथ दूंगा वह सिर से उसे स्वीकार करे । बह ग्रावे और कर ले जावे इस में क्या हानि है—इस प्रकार तेज प्रकट करने वाले दानों भाईयों ने कटुक शब्दों के द्वारा नारद को उच्च स्वर से उत्तर दिया।
तदनन्तर यह समाचार सुनकर मधुसूदन बहुत ही कुपित हुमा और उन दोनों भाइयों को मारने के लिए चला तथा वे दोनों भाई भी क्रोध से उसे मारने के लिए चले । दोनों सेनाओं का ऐसा संग्राम हुमा मानो सबका महार ही करना चाहते हों। शत्रु-मधुसूदन ने पुरुषोत्तम के ऊपर चक्र चलाया परन्तु वह चक पुरुषोत्तम का कुछ नहीं बिगाड़ सका । अन्त में पुरुषोत्तम ने उसी चक्र से मघमूदन' को मार डाला। दोनों भाई चौथे बलभद्र और नारायण हुए तथा तीन खण्ड के आधिपत्य का इस प्रकार अनुभव करने लगे जिस प्रकार कि सूर्य और चन्द्रमा ज्योतिलोक के आधिपत्य का अनुभव करते हैं । प्रायु के अन्त में पुरुषोत्तम नारायण छठवें नरक गया और सप्रभ बलभद्र उसके बियोग से उत्पन्न शोक रूपी अग्नि से बहुत ही संतप्त हुा । सोमप्रभ जिनेन्द्र ने उसे समझाया जिससे प्रसन्नचित्त होकर उसने दीक्षा ले ली और अन्त में भपक श्रेणी पर प्रारूद होकर उस बुद्धिमान ने मोक्ष प्राप्त कर लिया।