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कर पहिना । वह मनुष्य सर्वथा बुद्धिरहित नहीं है अथवा संसार के प्रभाव का विचार नहीं करता है तो संसार के ऐसे स्वभाव का विचार करने वाला कौन मनुष्य है जो विषय भोगों में प्रीति बढ़ाने वाला हो ?
इस तरह सिंहचन्द्र मुनि के समझाने पर रामदत्ता को वोध हुआ, वह पुत्र के स्नेह से राजा पूर्णचन्द्र के पास गई और उसे सब बातें कहकर समझाया। पूर्णचंद्र ने धर्म के तत्त्व को समझा और चिरकाल तक राज्य का पालन किया। रामदत्ता ने पुत्र के स्नेह से निदान किया और आयु के अन्त में मरकर महाशुक्र स्वर्ग के भास्कर नामक विमान में देव पद प्राप्त किया । तथा पूर्णचन्द्र भी उसी स्वयं के वैडूर्य नामक विमान में हू नाम का देव हुआ। निर्मल ज्ञान के धारक सिचन्द्र मुनिराज भी अच्छी तरह समाधिमरण कर नौवें ग्रैवेयक के श्रीतंकर विमान में अहमिन्द्र हुए। रामदत्ता का जीव महाशुक स्वर्ग से चलकर इसी दक्षिण श्रेणी के धरणीतिक नामक नगर के स्वामी अतिवेग विद्याधर के श्रीधरा नामकी पुत्री हुई वहाँ इसकी माता का नाम सुलक्षणा था। यह धीरा पुत्री का नगरी के प्रधिपति दर्शन नामक विद्यावर के राजा के लिए दी गई पूर्णचन्द्र का जीव जो कि महाशुत्र स्वर्ग के वैडूर्य विमान में वैडूर्य नामक देव हुआ था वहां से चयकर इसी श्रीधरा के यशोधरा नाम को वह कन्या हुई जो कि पुष्करपुर नगर के राजा सूर्यावर्त के लिए दी गई थी। राजा सिंहसेन अथवा अशनिधोष हाथी का जीव श्रीधर देव उन दोनों सूर्यावर्त और यशोधरा के रश्मि नाम का पुत्र हुआ किसी मुनिवर नामक मुनि से धर्मोपदेश सुनकर राजा सूर्यव्रत तप के लिए चले गये और श्रीधरा तथा यशोधरा ने गुणवली आर्यिका के पास दीक्षा धारण कर ली ।
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किसी समय रश्मिवेग सिद्धकूट पर विद्यमान जिन-मन्दिर के दर्शन के लिए गया, वहां उसने चारण शुद्ध धारी हरिश्चन्द्र नामक मुनिराज के दर्शन कर उनसे धर्म का स्वरूप सुना, उन्हीं से सम्यग्दर्शन और संयम प्राप्त कर मुनि हो गया तथा शीघ्र ही आकाशचारण ऋद्धि प्राप्त कर सी किसी दिन रश्मिवेय मुनि कांचन नाम की गुहा में विराजमान थे, उन्हें ली। देखकर श्रीधरा और यशोधरा धाविकाएं उन्हें नमस्कार कर वहीं बैठ गई।
इधर सत्यघोष का जीव जो तीसरे नरक में नारकी हुआ था। वहाँ से निकल कर पाप के उदय से चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहा और अन्त में उसी वन में महान अजगर हुआ। उन श्रीधरा तथा यशोधरा शायिकाओं को और सूर्य के समान दीप्ति वाले उन रश्मिवेग मुनिराज को देखकर उस अजगर ने क्रोध से एक हो साथ निगल लिया । समाधिमरण कर प्रायिकाएं तो कापिष्ट नामक स्वर्ग के रुचक नामक विमान में उत्पन्न हुई। और मुनि उसी स्वयं के अर्कप्रभ नामक विमान में देव उत्पन्न हुए। यह अजगर भी पाप के उदय से पंकप्रभा नामक चतुर्थ पृथ्वी में पहुंचा सिचन्द्र का जीव स्वर्ण से कर इसी जस्बूद्वीप के चन्द्रपुर नगर के स्वामी राजा अपराजित और उनकी सुन्दरी नाम की रानी के चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ । उसके कुछ समय बाद रहिमवेग का जी भी स्वयं से युत होकर इसी अपराजित राजा की दूसरी रानो चित्रमाला के बा नाम का पुत्र हुआ। श्रीवरा प्रायिका स्वर्ग से चयकर धरणी तिलकनगर के स्वामी अतिवेग राजा को प्रियकारिणो रानी के समस्त लक्षणों से सम्पूर्ण रत्नमाला नाम को अत्यन्त प्रसिद्ध पुत्र हुई। यह रत्नमाला आगे चलकर वज्रायुफ के मानन्द को बढ़ाने बाली उसकी प्राणप्रिय हुई। पीर यशोधरा आर्थिक स्वर्ग से करन दोनी वखायुध थोर रस्नमाला के रनावुध नाम का पुत्र हुआ। इस प्रकार से यहां प्रतिदिन अपने-अपने पूर्व पुष्य का फल प्राप्त करने लगे।
किसी दिन धीरबुद्धि के धारक राजा अपराजित ने पिहितास्रत्र मुनि से धर्मोपदेश सुना और चक्रायुध के लिए राज्य देकर दीक्षा ले ली। कुछ समय बाद राजा चक्रायुध भी वज्रायुध पर राज्य का भार रखकर अपने पिता के पाय दीक्षित हो गये और उसी जन्म में मोक्ष चले गये। अब बाप ने राज्य का भार रत्नायुध के लिए सौंपकर चक्रायुध के समीप दीक्षा ली सो ठीक ही है क्योंकि सत्ययुग के धारक क्या नहीं करते ? रत्नायुध भोगों में व्यासक्त था .तः धर्म की रक्षा छोड़कर बड़ी लम्पटता के साथ वह चिरकाल तक राज्य के सुख भोगता रहा किसी समय मनोरम नाम के महोदान में बच्चदन्त महामुनि
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