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लोकानयोग का वर्णन कर रहे थे उसे सुनकर बड़े बुद्धिवाले, राजा के मेघविजय नामक हाथी को अपने पूर्व भव का स्मरण हो आया जिससे उसने योग धारण कर लिया. मांसादि ग्रास लेना छोड़ दिया और संपार को दुःखमय स्थिति का वह विचार करने लगा। यह देख राजा घबड़ा गया, उसने बड़े-बड़े मन्त्रवादियों तथा वैद्यों को बुलाकर स्वयं हा बड़े आदर से पूछा कि इस हाथी को क्या विकार हो गया है ? उन्होंने जब बात पित्त और कफ से उत्पन्न हुअा क ई विकार नहीं देखा तब अनुमान से विवार कर कहा कि धर्म श्रवण करने से इसे जाति स्मरण हो गया इसलिए उन्होंने किसी अच्छे वतंत्र में बना तथा धुत प्रादि से मिला हना शुद्ध आहार उनके सामने रखा जिसे उस गजराज ने खा लिया।
यह देख राजा बहुत ही अश्चर्य को प्राप्त हुना। वह वज्रदन्त नामक अवधिज्ञानी मुनिराज के पास गया और यह सब समाचार कहकर उनसे इसका कारण पूछने लगा। मुनिराज ने कहा कि हे राजन! मैं सब कारण कहता हूं नू सुन । इसी भरतक्षेत्र में छत्रपुर नगर का राजा प्रतिभद्र था । उसकी सुन्दरी नाम की रानी से प्रीतिकर नामक पुत्र हुआ। राजा के एक चित्रमात नामक मन्त्री था ओर लक्ष्मी के समान उसको कमला नाम को स्त्री था। कमला के विचित्र मति नाम का पुत्र हुआ। एक दिन राजा और मंत्री दोनों के पुत्रों ने धर्मरुचि नाम के मुनिराज से धर्मादेश राना ओर उसी समय लोगों से उदास होकर दोनों ने तप धारण कर लिया। महामुनि प्रीतिकर को क्षौरासब नाम की द्धि उत्पन्न हो गई। वे दोनों मुनि यम-क्रम से विहार करते हुए साकेतपुर पहुंचे। उनमें से मत्रिपुत्र विचित्रमति मुनि उपवास का नियम मेकर नगर के बाहर रह गये और राजपुत्र प्रीतिकर मुनि चर्या के लिए नगर में गये । अपने घर के समीप जाता हुआ देख बुद्धिप्रेणा नाम को बताने उन्हें बड़ो विनय से प्रणाम किया। और मेरा कुल दान देने योग्य नहीं है इसलिए बड़े शोक से अपनी निन्दा करती हई उसने मुनिराज से पूछा कि हे मुने आप यह बताइये कि प्राणियों को उत्तम कुल तथा रूप आदि की प्राप्ति किस कारण से होती है ? 'मद्य मांसादि के त्याग से होती है। सा कहकर वह मुनि नगर से लौट आये। दूसरे विचित्रमति मुनि ने आदर के साथ पूछा कि आप नगर में बहुत देर तक कंसे टहरं ? उन्होने भी वक्ष्या के साथ जो बात हुई थी वह ज्यों की त्या निवेदन कर दी ।
दूसरे दिन मंत्री पुत्र विचित्रमति मुनि ने भिक्षा के समय वैश्या के घर में प्रवेश किया। वैश्या मुनि को देखकर एकदम उठी तथा नमस्कार करके पहले के समान बड़े प्रादर से धर्म का स्वरूप पूछने लगी । परन्तु दुर्व डि विचित्रमतिमूनि ने उसके साथ काम और राग सम्बन्धी कथाएं ही की। वैश्या उनके अभिप्राय को समझ गई अत: उसने उराका तिरस्कार किया। विचित्रमति वैश्या से अपमान पाकर बहुत ही क्रुद्ध हुअा । उसने मुनिपना छोड़ दिया और राजा की नौकरी कर ली। वहाँ पाकशास्त्र के कहे अनसार बनाये हुए मांस से उसने उस नगर के स्वामी राजा गन्धमित्र को अपने वश कर लिया और हर उपाय से उस जपणा को अपने प्राधीन कर लिया । अन्त में बह विचित्रमति मर कर तुम्हारा हाथी हुआ है। मैं यहां त्रिलोक प्राप्ति का पाठ कर रहा था उसे सुनकर इसे जाति स्मरण हुआ है। अब यह संसार से विरक्त है, निकट भव्य है और तिला धर्म का त्याग करना गैसा है जैसा कि कांच के लिए महामणि का और दासी के लिए माता का त्याग करना है इसलिए बितानों को चाहिए कि व भोगों का सदा त्याग करें। यह सुनकर राजा कहने लगा कि धर्म को दूषित करने वाले कामको धिक्कार है, वास्तव में धर्म ही परम मित्र है ऐसा कहकर बह धर्म में तत्पर हो गया। उसने उसी समय अपना राज्य पर लिए दे दिया और माता के साथ संयम धारण कर लिया । तपश्चरण कर मरा और आयु के अन्त में सोलहवें स्वर्ग में देव ना।
सत्यघोष का जीव जो पंकप्रभा' नामक चौथे नरक में गया था। वहां से निकलकर चिरकाल तक नाना योनियों में भ्रमण करता हत्या अनेक दुःख भोगता रहा । एक बार वह पूर्वकृत पाप के उदय से इस क्षेत्रपुर नगर में दारुण नामक व्याल की मंगी स्त्री से प्रतिधारण नामक पुत्र हना। किसी एक प्रियंगुरखण्ड नाम के वन में वज्रायध मुनि प्रतिमायोग धारण कर विराजमान थे उन्हें उस इष्ट भील के लड़के ने परलोक भेज दिया- मार डाला। तीक्ष्ण बुद्धि को धारक वे मुनि व्याल के द्वारा किया हुया