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सिंहमेन बा जीव अशनिघोष हाथी हया, फिर श्रीधर देव, रश्मिवेग, अर्कप्रमदेव, महाराज बज्रायुध, सर्वार्थसिद्धि में देवेन्द्र और वहां से चयकर संजयन्त बावली हुआ । इस प्रकार सिंहोन ने भाट यव में मोक्षपद पाया। मधुरा का जोव रामदत्ता, भास्करदेव, थींधरा, देव, रत्नमाला, अच्युतदेव, वीतभय और आदित्यप्रभदेव होकर विमलवाहन भगवान का मेरु नाम का गणधर हत्या और सात ऋद्वियों से युक्त होकर उसी भव से मोक्ष को प्राप्त हुधा । वाहणी का जीव पूर्णचन्द्र, वैडूर्यदेव, यशोधरा काचित स्वर्ग में बहत भार, मसिनोधारणा करने वाला रुचकप्रभ नाम का देव, रत्नायुध देव, भीषण पाप के कारण दूसरे नरवा का नारको, थीधर्मा ब्रह्मस्वर्ग का देव, जयन्त, धरणेन्द्र पौर विमलनाथ का मन्दर नाम का गणधर हया और चार ज्ञान का धारी होकर संमार सागर से पार हो गया। धोभूति--सत्यधोप) मंत्री का जोव सर्य, चमर, कुकुट, सर्प, तीसरे नरक का दुःखी नारकी, अजगर चौथे नरक का नारकी, बस और स्थावरों के बहुत भा अति दारुण सातवें नरक का नारकी, सर्प, नारकी, अनेक योनियों में भ्रमण कर मृगशृग और फिर मरकर पापी विद्युदण्ट्र विद्याधर हुमा एवं पीछे से वर रहित-प्रसन्न भी हो गया था। भद्रमित्र सेठ का जीव सिंहचन्द्र, प्रतिकर देव प्रौर चक्रायुध का भव धारण कर पाठों कर्मों को नष्ट करता हमा निर्वाण को प्राप्त हुआ था ।
इस प्रकार कहे हुए तीनों हो जीव अपने-अपने कर्मोदय के वश चिरकाल तक उच्च-नीच स्थान पाकर कहीं तो सुख का अनुभव करते रहे और कहीं बिना मांगे हुए तीव दुःख भोगते रहे परन्तु अन्त में तोनों ही निष्पाप होकर परमपद को प्राप्त हए। जिन महानुभाव ने हृदय में समता रसके विद्यमान रहने से दुष्ट विद्यावर के द्वारा किये हए भयंकर उपसर्ग को 'यह किसी बिरले ही भाग्यवान को प्राप्त होता है' इस प्रकार विचार कर बहुत अच्छा माना और अत्यन्त निर्मल शुक्ल ध्यान को धारण कर शुद्धता प्राप्त की वे कर्ममल रहित संजयन्त स्वामी तुम सबकी रक्षा करें । जिन्होंने सूर्य और चन्द्रमा को जीतकर उत्कृष्ट तेज प्राप्त किया है, जो मुनियों के समूह के स्वामी हैं, तथा नयों से परिपूर्ण जिनागम के नायक है ऐसे मेरु और मंदर नाम के गणधर सदा आप लोगों से पूजित रहें-आप लोग सदा उनकी पूजा करते रहें।
भगवान अनन्तनाथ अथानन्तर जो अनन्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं तथा अनन्त गुणों की खान-स्वरूप हैं ऐसे श्री अनन्तनाथ भगवान हम सबके हृदय में रहने वाले मोह रूपी अन्धकार की सन्तान को नष्ट कर । धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व मेर से उत्तर की ओर विद्यमान किसी देश में एक अरिष्ट नामका बड़ा सुन्दर नगर है जो ऐसा जान पड़ता है मानों समस्त सम्पदाओं के रहने का एक स्थान हो हो। उस नगर वा राजा पद्मरथ था, वह अपने गुणों से पद्मा-लक्ष्मी का स्थान था, उसने चिर काल तक पृथ्वी का पालन किया जिसरी प्रजा परम प्रीति को प्राप्त होती रही।
जीवों को सुख देने वालो उत्तम रूप आदि सामग्री पुण्योदय से प्राप्त होती है और राजा पद्मरथ के वह पुण्य का उदय बहत भारी तथा बाधा रहित था । इसलिए इन्द्रियों के विषयों के सान्निध्य में उत्पन्न होने वाले सुख से वह इन्द्र के समान संतुष्ट होता हुआ अच्छी तरह संसार के मुख का अनुभव करता था। किसी एक दिन वह स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के समीप गया । वहाँ उसने विनय के साथ उनकी रसुति की और निर्मल धर्म का उपदेश सूना । तदनन्तर बह चिन्तवन करने लगा कि 'जीवों का शरीर के साथ और इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ जो संयोग होता है यह अनित्य है क्योंकि इस संसार में सभी जीवों के प्रात्मा और शरीर तथा इन्द्रियों और उनके विषय इनमें से एक का प्रभाव होता ही रहता है।
यदि अन्य मतावलम्बी लोगों का प्राशय मोहित हो तो भले ही हो मैंने तो मोहरूपी शत्रु के माहात्म्य को नष्ट करने वाले महन्त भगवान के चरण-कमलों का आश्रय प्राप्त किया है। मैं इन विषयों में अपनी बुद्धि स्थिर फंसे कर सकता हूंइन विषयों को नित्य किस प्रकार मान सकता है इस प्रकार इसकी बुद्धि मोहरूपा महागांठ को खोलकर उद्यम करने लगी। तदन्नतर जिस प्रकार चारों और लगी हई वनाग्नि की ज्वालासों से भयभीत हुआ हरिण अपने बहुत पुराने रहने
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