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किया प्रतिपाती नाम का शुक्ल ध्यान धारण किया और तत्काल ही सहयोग अवस्था से प्रयोग अवस्था धारण कर उस प्रकार स्वास्थ्य स्वरूपावस्था मोक्ष प्राप्त किया जिस प्रकार कि कोई रोगी स्वास्थ्य (नीरोग अवस्था ) प्राप्त करता है। उसी समय से कर लो, कालाष्टमी के नाम से विद्वानों के द्वारा पूज्य हो गई और इसी निमित्त को पाकर मिथ्या दृष्टि लोग भी उसकी पूजा करने लगे। उसी समय सौधर्म आदि देवों में आकर उनका अन्त्येष्टि संस्कार किया और मुक्त हुए उन भगवान् की धर्वपूर्ण सिद्धि स्तुतियों से बन्दना की।
हिंसा आदि पापों से परिणत हुना यह जीव निरन्तर मल का संचय करता रहता है और पुण्य के द्वारा भी इसी संसार में निरन्तर विद्यमान रहता है अतः कहीं अपने गुणों को विशुद्ध बनाना चाहिए- पुष्प के विकल्प से रहित बनाना चाहिए। श्राज मैं निर्मल वृद्धि शुद्धोपयोग की भावना को प्राप्त कर अपने उन गुणों को शुद्धि प्राप्त कराता हूं-पुण्य पाप के विकल्प से दूर हटाकर शुद्ध बनाता है ऐसा विचार कर ही जो शुक्लध्यान को प्राप्त हुए थे ऐसे विमलवाहून भगवान् अपने सार्थक नाम को धारण करते थे । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान ही जिसके दो दांत हैं; गुण हो जिसका पवित्र शरीर है, चार प्राराधनाएं हो जिसके चरण हैं और विशाल धर्म ही जिसकी सूंड है ऐसे सन्मार्ग रूपी हाथी को पाप रूपी शत्रु के प्रति प्रेरित कर भगवान् विवाहन ने पाप रूपी वत्रु को नष्ट किया था इसलिए ही लोग उन्हें विमल राहून (विमलं वाहनं यानं यस्य सः विमलवाहनः निर्मल सारी युक्त) कहते थे जो पहले राघों की सेना को नष्ट करने वाले पद्मसेन राजा हुए, फिर देव समूह से पूजनीय स्वर्ग के इन्द्र हुए, और तदनन्त विशाल निर्मलकीर्ति के धारक एवं समस्त पृथ्वी के स्वामी मिलनाथ तीर्थंकर अच्छी तरह माप लोगों के संतोष के लिए हों।
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तथा स्पष्ट सुखों से युक्त अष्टम वाहन जिनेन्द्र हुए,
हे भव्य जीवो! जिन्होंने अपनी अत्यन्तर निश्चल समाधि के द्वारा समस्त दोषों को नष्ट कर दिया है, जिनका ज्ञान कम इन्द्रिय तथा मन से रहित है, जिनका शरीर अत्यन्त निर्मल है और देव भी जिनको कीर्ति का गान करते हैं ऐसे मिलवाहन भगवान् को निर्मलता प्राप्त करने के लिए तुम सब बड़ी भक्ति से नमस्कार करो ।
अथानन्तर श्री विमलनाथ भगवान् के तीर्थ में धर्म और स्वयंभू नाम के बलभद्र तथा नारायण हुए इसलिए अब उनका चरित्र कहा जाता है। इसी भरत क्षेत्र के पश्चिम विदेह क्षेत्र में एक मित्रनन्दी नाम का राजा था, उसने अपने उपभोग करने योग्य समस्त पृथ्वी अपने अधीन कर ली थी प्रजा इसके साथ प्रेम रखती थी इसलिये यह प्रजा की वृद्धि के लिये था और यह प्रजा की रक्षा करता था अतः प्रजा इसको वृद्धि के लिये थी- राजा और प्रजा दोनों ही सदा एक दूसरे की वृद्धि करते थे सो ठीक हो है कि परोपकार के भीतर स्वोपकार भी निहित रहता है। उस बुद्धिमान के लिए शत्रु की सेना भी सेना के समान थी और जिसकी बुद्धि चक्र के समान फिरा करती थी - चंचल रहती थी उसके लिए क्रम का उल्लंघन होने से स्त्रसेना भी शत्रु सेना के समान हो जाती थी। यह राजा समस्त प्रजा को संतुष्ट करके ही स्वयं संतुष्ट होता था सो ठीक ही है क्योंकि परोपकार करने वाले मनुष्यों के दूसरों को संतुष्ट करने से ही अपना संतोष होता है। किसी एक दिन वह बुद्धिमान् सुक्त नामक जिनेन्द्र के पास पहुंचा और वहां धर्म का स्वरूप सुनकर अपने शरीर तथा भोगादि को नश्वर मानने लगा | वह सोचने लगा बड़े दुःख की बात है कि ये संसार के प्राणी परिग्रह के समागम से ही पापों का संवम करते हुए दुःखी हो रहे हैं फिर भी निपरिग्रह अवस्था को प्राप्त नहीं होते-सब परिग्रह छोड़कर दिगम्बर नहीं होते। बड़ा आश्चर्य है कि ये सामने की बात को भी नहीं जानते। इस प्रकार संसार से विरक्त होकर उसने उत्कृष्ट संयम धारण कर लिया और पन्त समय में सन्यास धारण कर अनुत्तर विमान में तेतीस सागर की आयु वाला महमिन्द्र हुआ
वहां से चयकर द्वारावती नगरी के राजा भद्र की रानी सुभद्रा के शुभ स्वप्न देखने के बाद धर्म नाम का पुत्र हुआ। इसी भारत वर्ष के कुणाल देश में एक भावस्ती नाम का नगर था वहां पर भोगों में तल्लीन हुआ सुकेतु नाम का राजा रहता अशुभ कर्म के उदय से वह बहुत कामी था तथा युत व्यसन में घासक्त था। यद्यपि हित चाहने वाले मन्त्रियों और
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