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थे लक्ष्मी के अधिपति भगवान् विमलवाहन का कुपुष्प अथवा चन्द्रमा के समान निर्मल पक्ष दिशाकों को प्रकाशित कर रहा
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या धोर आकाश को पुष्प के समान बना रहा था। इस प्रकार छह ऋतुयों में उत्पन्न हुए भोगों का उपभोग करते
प्राकाश
के तीस लाख वर्ष बीत गये ।
हुए भगवान
एक दिन उन्होंने, जिसमें समस्त दिशाएं भूमि, वृक्ष और पर्वत बर्फ से ढक रहे थे ऐसी हेमन्त ऋतु में बर्फ की शोभा को तत्क्षण में विलीन होते देखा। जिससे उन्हें उसी समय संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया, उसी समय उन्हें अपने पूर्व जन्म की सब बातें याद आ गई और मान भंग का विचार कर रोगी के समान अत्यन्त खेदखिन्न हुए। ये सोचने लगे कि इन तीन सम्यजानों से क्या होने वाला है क्योंकि इन सभी की सीमा है इन सभी का विषय क्षेत्र परिमित है और इस वीर्य से भी क्या लाभ है ? जो कि परमोत्कृष्ट यवस्था को प्राप्त नहीं है। चूंकि प्रत्यास्थानावरण कर्म का उदय है अतः मेरे चारित्र का देश भी नहीं है और वहुत प्रकार का मोह तथा परिग्रह विद्यमान है अतः चारों प्रकार बन्ध भी विद्यमान हैं। प्रमाद भी अभी मौजूद है और निर्जरा भी बहुत थोड़ी है । अहो ! मोह की महिमा है कि अब मैं इन्हीं संसार की वस्तुओं में अनुरक्त हो रहा हूं। मेरा साहस तो देखो कि मैं अब तक सर्प के शरीर अथवा फण के समान भयंकर इन भोगों को भोग रहा हूं। यह सब भोगापभोग मुझे पुण्य कर्म के उदय से प्राप्त हुए हैं।
सो जब तक इस पुण्य कर्म का ग्रन्त नहीं कर देता जब तक मुझे अनन्त सुख कंसे प्राप्त हो सकता है ? इस प्रकार निर्मल ज्ञान उत्पन्न होने से विमलवाहन भगवान् ने अपने हृदय में विचार किया। उसी समय बाये हुए सारस्वत पादि लौकान्तिक देवों ने उनका स्तवन किया तथा अन्य देवों ने दीक्षा कल्याणक के समय होने वाले अभिषेक का उत्सव किया तदनन्तर देवों के द्वारा घिरे हुए भगवान् देवदत्त नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक वन में गये और वहां दो दिन के उपवास का नियम लेकर दीक्षित हो गये। उन्होंने यह दीक्षा माच बुक्ता चतुयों के दिन सायंकाल के समय बीसवं उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ ली थी और उसी दिन था मन:पर्ययज्ञान प्राप्त कर चार जाग के भारी हो गये थे। दूसरे दिन उन्होंने भोजन के लिए नन्दनपुर नगर में प्रवेश किया। वहां सुवर्ण के समान कान्ति बाले राजा कनकप्रथ ने उन्हें आहार दान देकर पंचाश्चर्य प्राप्त किये सो ठीक ही है क्योंकि पात्रदान से क्या नहीं होता ? इस प्रकार सामायिक चारित्र धारण करके शुद्ध हृदय से तपस्या करने लगे ।
पर
जब तीन वर्ष बीत गये तब वे महामुनि एक दिन अपने दीक्षावन में दो दिन के उपवास का नियम लेकर जामुन के वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ हुए। फल स्वरूप माघ शुक्ल षष्ठी के दिन सायंकाल के समय अतिशय श्रेष्ठ भगवान् विमलवाहन ने अपने दीक्षा ग्रहण के नक्षत्र में घातिया कर्मों का विनाश कर ज्ञान प्राप्त कर लिया। अब वे पर अपर समस्त पदार्थों को शीघ्र ही जानने लगे। उसी समय अपने मुकुट तथा मुख मुकाये हुए देव योग आये। उन्होंने देवदुन्दुभि आदिबाट मुख्य प्रातिहायों का वैभव प्रकट किया। उसे पाकर वे गन्धकुटी के मध्य में स्थित सिहासन विराजमान हुए। वे भगवान् मन्दर आदि पचपन गणधरों से सदा घिरे रहते थे, ग्यारह सो पूज्य पूर्वधारियों से सहित थे, छत्तीस हजार पांच सी तीख शिक्षकों से युक्त थे, चार हजार जाठ सो सोन अवधिज्ञानियों से वन्दित थे, पांच हजार पांच सौ केवलज्ञानी उनके साथ थे, नौ हजार विक्रिया ऋद्धि के धारक उनके संघ की वृद्धि करते थे, पांच हजार पांच सौ मन:पर्ययज्ञानी उनके समवसरण में थे, वे तीन हजार छह सौ वादियों से सहित थे, इस प्रकार घड़सठ हजार मुनि उनकी स्तुति करते थे । पद्मा को यदि लेकर एक लाख तीन हजार आणिकाएं उनकी पूजा करती थीं ये लाल श्रावकों से सहित ये तथा चार लाख भाविकायों से पूजित थे।
इनके सिवाय दो गणों अर्थात् असंख्यात देव देवियों श्रीर संख्यात तिर्यचों से वे सहित थे। इस तरह धर्म क्षेत्रों में उन्होंने निरन्तर विहार किया तथा संसार रूपी सातव से मुरझाये हुए भव्यरूपी धान्यों को संतुष्ट किया। अन्त में ये सम्भेदशिखर पर जा विराजमान हुए और वहां पर उन्होंने एक माह का निरोध किया। बाठ हजार छह सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण किया तथा भाषाड़ कृष्ण अष्टमी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में प्रातः काल के समय शीघ्र ही समुद्घात कर सूक्ष्म
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