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हुए सम्मेदशिखर पर जा पहुंचे। वहाँ एक माह तक योग-निरोष कर एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया । श्रावण शुक्ला पौर्णमासी के दिन सायंकाल के समय घनिष्ठा नक्षत्र में विद्यमान कर्मों को प्रसंख्यातगुण श्रेणी निर्जरा की और इ उ ऋ लृ इन पांच लघु अक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतने समय में अन्तिम दो शुक्लव्यानां से समस्त कर्मों को नष्ट कर पंचम गति में स्थित हो वे भगवान यांसनाथ मुक्त होते हुए सिद्ध हो गये। इसके बिना हमारा टिमकाररहितपना व्यर्थ है ऐसा विचार कर देवों ने उस समय उनका निर्वाण कल्याणक किया और उत्सव कर सब स्वग चल
गये ।
जिनके ज्ञान ने उत्पन्न होते ही समस्त अन्धकार को नष्ट कर सब वराचर विश्व का देख लिया था, और काई प्रातपक्ष न होने से जो अपने ही स्वरूप में स्थित रहा था ऐस श्रा श्रयासनाथ जिनेन्द्र तुम सबका अकल्याण दूर कर ह प्रभा ! आपक वचन सत्य सबका हित करने वाले तथा दयामय है । इसा प्रकार आपका समस्त चरित्र सुहृत् जना के लिए हितकारी है। ह गवन्! आपको दोनों वस्तु इसीलिए इन्द्रयादि देव भक्तिपूर्वक आपका हो नाव भगवान् तुम सबके कल्याण के लिए हां
है
!
बाय देते हैं। इस प्रकार विद्वान् लोग जिनको स्तुति किया करते हैं ऐसे जा पहले पाप की प्रभा को नष्ट करने वाल श्रेष्ठतम नालनप्रभ राजा हुए, तदनन्तर अन्तिम कल्प मं सकल्प मात्र से प्राप्त हान वाले सुखों की खान स्वरूप, समस्त दवा के अधिपति -अच्युतेन्द्र हुए और फिर त्रिलोकपूजित तायकर हाकर कल्याणकारा स्वाद्वाद का उपदेश देते हुए मोक्ष को प्राप्त हुए ऐसे श्रीमान् श्रेयांसनाथ जिनेन्द्र तुम सबको लक्ष्मी के लिए हों तुम सबको लक्ष्मी प्रदान करें।
जिस प्रकार वतियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हुआ उसी प्रकार यांसनाथ के तीर्थ में तोन खण्डको पालन करने वाले नारायणों में उद्यमी प्रथम नारायण हुआ । उसी का चरित्र तीसरे भव से लेकर कहता हूँ। यह उदय तथा ग्रस्त होने वाले राजाओं का एक अच्छा उदाहरण है इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक मगध नाम का देश है उसमें राजगृह नाम का नगर है जो कि इन्द्रपुरी से भी उत्तम है। स्वर्ग से आकर उत्पन्न होने वाले राजाओं का यह घर है इसलिए भोगोपभोग की सम्पत्ति की अपेक्षा उसका 'राजगृह' यह नाम सार्थक है। किसी समय विश्वभूति राजा उस राजगृह नगर का स्वामी था, उसकी रानी का नाम जैनी था। इन दोनों के एक पुत्र था जो कि सबके लिए आनन्ददायी स्वभाव वाला होने के कारण विश्वनन्दी नाम से प्रसिद्ध था । विश्वभूति के विशाखनन्दी नाम का छोटा भाई था, उसकी स्त्री का नाम लक्ष्मणा था और उन दोनों के विशाखनन्दी नाम का पुत्र था । विश्वभुति अपने छोटे भाई को राज्य सौंपकर तपके लिए चला गया और समस्त राजाओं को नम्र बनाता हुआ दिशाभूति प्रभा का पालन करने लगा। उसी राजगृह नगर में नाना गुफाथों, बतायों और वृक्षों से मुखा भित एक नन्दन नाम का बाग था जो कि विश्वनन्दी को प्राणों से अधिक प्यारा था विशालभूति के पुत्र ने बनपालों को डॉटकर जबर्दस्ती वह वन ले लिया जिससे उन दोनों विश्वनन्दी और विशासानान्दी में युद्ध हुआ।
विशाखनन्दी उस युद्ध को नहीं सह सका अतः भाग खड़ा हुआ । यह देखकर विश्वनन्दी को वैराग्य उत्पन्न हो गया और वह विचार करने लगा कि इस मोह को धिक्कार है। वह सबको छोड़कर सम्भूत गुरु के समीप आया और काका विशाखभूमि को अग्रगामी बनाकर अर्थात् उसे साथ लेकर दीक्षित हो गया। वह शोल तथा गुणों से सम्पन्न होकर अनशन तप करने लगा तथा विहार करता हुआ एक दिन मथुरा नगरी में प्रविष्ट हुआ। वहां एक छोटे बछड़े वाली गायो से धक्का दिया उसो मथुरा जिससे वह गिर पड़ा। दुष्टता के कारण राज्य से बाहर निकाला हुवा मूर्ख विशाखनन्दी अनेक देशों में घूमता हुआ नगरी में आकर रहने लगा था। वह उस समय एक वेश्या के मकान की छत पर बैठा था । वहाँ से उसने विश्वनन्दो को गिरा हुआ देखकर श्रेष से उसकी हंसी की कि तुम्हारा वह पराक्रम ग्राम कहाँ गया? विश्वनन्दी को कुछ शल्य यो मतः उसने विशाखनन्दी की हंसी सुनकर निदान किया। तथा प्राणक्षय होने पर महाशुक स्वर्ग में जहां कि पिता का छोटा भाई उत्पन्न हुआ था, देव हुआ। वहाँ सोलह सागर प्रमाण उसकी आयु थी । समस्त आयु भर देवियों और अप्सराओं के समूह के साथ मन
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