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यह निर्व द्धि प्राणी विषयों में आसक्त होकर अपनी आत्मा को अपने ही द्वारा बांध लेता है तथा चार प्रकार के बन्ध से चार प्रकार का दुःख भोगता हुअा इस अनादि संसार-बन में भ्रमण कर रहा है । अब मैं कालादि लब्धियों से उत्तम गुण को प्रकट करने वाले सन्मार्ग को प्राप्त हुआ हूं अतः मुझे मोक्ष रूप सद्गति ही प्राप्त करना चाहिए । शरीर भला ही स्थायो हो, दर्शनीय सुन्दर हो, नीरोग हो, आयु चिरकाल तक बाधा से रहित हो, और सुख के साधन निरन्तर मिलते रहें परन्तु यह निश्चित है कि इन सबका विकार अवश्य भाडो है, नहइन्द्रियजन्य सुख रागरूप है, रागी जीव कर्मों को बांधता है, बन्ध संसार का कारण है, संसार चतुर्गति रूप है और चारों गतियां दुःख तथा सुख को देने वाली हैं अत: मुझे इस संसार से क्या प्रयोजन है ? यह तो बुद्धिमानों के द्वारा छोड़ने योग्य ही है।
इधर भगवान ऐसा चिन्तवन कर रहे थे उधर लौकान्तिक देवों ने आवार उनकी स्तुति करना प्रारम्भ कर दी। देवों ने दीक्षा-कल्याणक के समय होने वाला अभिषेक किया प्राभूषण पहिनाये तथा अनेक उत्सव किये । महाराज वासुपूज्य देवों के द्वारा उठाई गई पालकी पर सवार होकर मनोहरोद्यान नामक वन में गये और वहाँ दो दिन के उपवास का नियम लेकर फाल्गन कृष्ण चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में सामायिक नामक चारित्र ग्रहण कर साथ ही साथ मनःपर्ययज्ञान के धारक भी हो गये। उनके साथ परमार्थ को जानने वाले छह सौ छिहत्तर राजानों ने भी बड़े हर्ष से दीक्षा प्राप्त की थी। दसरे दिन उन्होंने बाहार के लिये महानगर में प्रवेश किया । बहाँ सूवर्ण के समान कान्ति वाले सुन्दर नाम के राजा ने उन्हें याद्वार दिया। और पंचाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर छमस्थ अवस्था का एक वर्ष बीत जाने पर किसी दिन वासुपूज्य स्वामी अपने दीक्षावन में पाये । वहां उन्होंने कदम्ब वृक्ष के नीचे बैठकर उपवास का नियम लिया और माघशुक्ल द्वितीया के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चार घातिया कमों को नष्ट कर केवल ज्ञान प्राप्त किया। अब वे जिन राज हो गये।
सौधर्म प्रादि इन्द्रों ने उसी समय पाकर उनकी पूजा की। चूं कि भगवान् का वह दीक्षा-कल्याणक नाम कर्म के उदय से हा था अतः जसका विस्तार के साथ वर्णन नहीं किया जा सकता। वे धर्म को प्रादि लेकर छयासठ गणधरों के समूह से वन्दित थे.बारह सौ पूर्वधारियों से घिरे रहते थे, उनतालीस हजार दो सौ शिक्षक उनके चरणों की स्तुति करते थे, पांच हजार चार सो अवधिज्ञानी उनकी सेवा करते थे, छह हजार के बलज्ञानी उनके साथ थे, दश हजार विक्रिया ऋद्धि को धारण करने वाले मनि उनकी शोभा बढ़ा रहे थे, छह हजार मनः पर्ययज्ञानी उनके चरण कमलों का आदर करते थे और चार हजार दो सौ बादी उनकी उत्तम प्रसिद्धि को बढ़ा रहे थे। इस प्रकार सब मिलकर बहत्तर हजार मुनियों से सुशोभित थे, एक लाख छह हजार सेना आदि आथिकानों को धारण करते थे, दो लाख श्रावकों से सहित थे, चार लाख श्राविकायों से युक्त थे, असंख्यात देवदेवियों से स्तुत्य थे और संख्यात तियंचों से स्तुत्य थे।
भगवान् ने इन सबके साथ समस्त आर्य क्षेत्रों में विहार कर उन्हें धर्म वृष्टि से संतृप्त किया और क्रम-क्रम से चम्पा नगरी में प्राकर एक हजार वर्ष तक रहे । जब आयु में एक मास शेष रह गया तब योग-निरोध कर रजत मालिका नामक नदी के किनारे की भूमि पर वर्तमान, मन्दर गिरि को शिखर को सुशोभित करने वाले मनोहरोद्योन में पर्यकासन से स्थित हुए
चतुर्दशी के दिन सायंकाल के समय विशाखा नक्षत्र में चौरानवें मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए । सेवा करने में अत्यन्त निपुण देवों ने निर्वाण कल्याणक की पूजा के बाद बड़े उत्सव से भगवान् की वन्दना की । जव कि विजय की इच्छा रखने वाले राजा को, अच्छी तरह प्रयोग में लाये हुए सन्धिविग्रह आदि छह गुणों से ही सिद्धि (विजय) मिल जाती है तब मोक्षाभिलाषी भगवान् को चौरासी लाख गुणों से सिद्धि (मुक्ति) क्यों नहीं मिलती ? अवश्य मिलती।
पदार्थ कचित् सत् है, कथंचित् असत् है, कथंचित् सत्-असत् उभयरूप है, कथंचित् प्रवक्तव्य है, कथंचित असत प्रवक्तव्य है और कथंचित् सदसद-बक्तब्य है, इस प्रकार हे भगवान्, आपने प्रत्येक पदार्थ के प्रति सप्तभंगी का निरूपण किया है और इसीलिए ग्राप सत्यवादी रूप से प्रसिद्ध हैं फिर हे वासुपूज्य देव ! आप पूज्य क्यों न हो?
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