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देव
देवकुरु
तपन
१२. विधुत्प्रभ गजदंत-(मेरु से कुलगिरि की ओर)
(ति. प. 1४/२०४.४-२०४६+२०५४), (रा. वा.४१०११७५1१८) (ह. पु. ।।२२२,२२७), त्रि.सा. १७३१-७४०) (ति. प.ह. प. व त्रि. सा.)
(रा. वा.) देव
क्रम सिद्धायतन जिनमन्दिर
सिद्धायतन
जिनमन्दिर विद्युत्पभ
विद्युत्लभ
देवकुरु पभ
पम वारिषेणा देवी
विजय
वारिषेणादेवी स्वस्तिक बला देवी
अपर विदेह
बलादेली शतउज्जवल (शतज्वाल)
स्वस्तिक सीतोदा
शतज्वाल हरि
सीतोदा
हरि नोट:-ह. पु. में बलादेवी के स्थान पर अचलादेवी कहा है । १३. गन्धमादन-(मेरु से कुलगिरी की पोर) (ति.प. १४१२०५७.२०५६), (रा.वा.।३।१०।१३।१७३२४), (ह.पु.।५।२१६-२१७). (जि. सा. १७४०-७४१)
(गन्धमालिना) सिद्धायतन जिनमन्दिर
भोगवती गन्धमादन
स्फटिक
भोगहत देवकुरु
(भोगकरा) गुन्धव्यास
ग्रानन्द नोट : त्रि. सा, में नं. ३ पर उत्तरकुरु कहा है और रा. वा. में लोहित के स्थान पर स्फटिक व स्फटिक के स्थान
पर लोहित कहा है। १४. माल्यवान गजवन्त (मेरु से कुलगिरि की प्रोर)
(ति, प, 1४१२०६०.२०६२), (रा, वा, ।३।१०।१३।१७३।३०), (ह. पृ, 1५।२१-२२०), त्रि, सा, 1८३८) (ति, प,; ह, पु,; त्रि, सा,)
देव सिद्धायतन
जिनमन्दिर माल्यवान उत्तरकुरु
क्रम
देव
लोहित
.
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क्रम
कूट
में से दो भाग मात्र जानना चाहिये । सीमंत वि. ४४०३३३३-६१६६६३:४३१६६६६
प्रथम पृथ्वी में भ्रान्त नामक चतुर्थ इन्दक का विस्तार व्यालीस लाख पच्चीस हजार योजन प्रमाण वाहा गया है। ४३१६६६६४-६१६६६३४२२५०००
उद्भ्रान्त नामक पाँचवें इन्द्र क के विस्तार का प्रमाण इकातालीस लाख तेतीस हजार तीन सौ तेतीस योजन और योजन के तीन भागों में से एक भाग है । ४२२५०००-६१६६६३-४१३३३३३
सम्भ्रान्त नामक छठे इन्द्रक का विस्तार चालीस लाख इकतालीस हजार छह मा छयासठ योजन और एक यांजन के तीन भागों में से दो भाग प्रमाण है।